मंगलवार, 7 जुलाई 2015

सुरक्षा-हास्य-व्यंग

इंसान का टेस्ट भी अजीब है.......अधिकांश पुरुषों का दिन अखार से शुरू हो कर टी.वी.न्यूज़ पर समाप्त हो जाता है।
गाँवों में भी खबरची होता था जो एक समाचार पत्र खरीद कर अन्य लोगों को खबरें पढ़ कर सुनाया करता था।
खबरें सुना कर भी लोग अपना मनोरंजन किया करते थे।
समय के साथ इस शगल का लुत्फ लेने वालों की संख्या में इजाफा हुआ......और जैसे ही दहेज में ट्रांजिस्टर मिलने लगे....लोगों का रुझान अखबार की खबरों में समाप्त होने लगा....
अब तो गाँव की चौपाल पर ट्रांजिस्टर को घेर कर समाचार सुनते लोग। किंतु शहरों में समाचार पत्र रोज सवेरे लोग नाश्ते में लेते रहे....अखबार भी खबरो को चटपटी,रसीली,सनसनाती हुई..दिल दहलाने वाली बता कर खूब पैसा बटोरने लगे....
एक समय था जब लोगों को कन्या भ्रूण हत्या के बारे में अखबारों से पता चला कि, शहरों में विदेशी मशीने लगी है जो जन्म लेने से पहले ही ये बता देती हैं कि...पैदा होने वाला बच्चा लड़का है या लड़की...फिर क्या था इस चमत्कार को नमस्कार करने अधिकांश नवविवाहित जोड़े पहुंचने लगे पैथॉलोजी वालों ने खूब रकम काटी और फिर सरकार ने इस लिंग परिक्षण को  अपराध घोषित कर दिया ...इस खबर से अखबार वालों का तो कोई लाभ नही हुआ किंतु लिंग परिक्षण करने वालों ने चोरी से ये परिक्षण करना जारी रक्खा और चाँदी काटते रहे।
अचानक टेस्ट बदला...और दहेज हत्या .....मुख्य खबरों में शुमार होने लगी....फिर तो देश भर में दहेज हत्याओं की बाढ़ सी आ गई.दहेज हत्या.........और प्रेम हत्या की खबरों ने फिर से लोगों को चर्चियाने का अवसर प्रदान कर दिया.....हंलाकि, बीच बीच में अन्य खबरे भी खदबदाती रहीं...जैसे कि....चुनाव चकल्लस,किरकिटिया कमेंट्री,बाँकी सीजनल समाचार जैसे....होली,दिवाली,दशहरा,क्रिसमश के बारे में लोग पूरे वर्ष भर चाय के साथ मजे लेते रहे...अब देखने वाली बात ये है कि, सूंचना माध्ममों की पहली पसंद और खबरों के केंद्र में कौन रहा?  जी हाँ....
                         "स्त्री"
मतलब बिन स्त्री सब सून....
इस महान देश भारत में सदियों से स्त्रियों का शोषण होता आया है....कभी घूंघट की आड़ में कभी मान मनुहार लाड़ में....हमारे एक बहू बेटे वाले मित्र नें हमसे पूंछा......ताला किसके लिये होता है?  मैने कहा सज्जनों के लिये। वो मेरी बात से सहमत हुए...
फिर हमने पूंछा...घूंघट किसके लिये?  क्यों कि, हमारे विद्वान मित्र की बहू घूंघट करती है और वो इसके पक्षधर भी थे........
वो बोले सम्मान के लिये...और अपनी सुरक्षा के लिये....हमने पूंछा...सम्मान किसका और सुरक्षा किससे?किसकी?
मित्र कहने लगे...बड़ों का सम्मान और स्वयं की सुरक्षा.......अपने से बुज़ुर्ग और विद्वान मित्र का इतना सारगर्भित तर्क सुन कर मैंने कहा.......
अरे भाई, आपका ये सुझाव यदि देश के सैनिको तक पहुंचा दिया जाय तो  उनका कल्याण हो जाए......सारे सैनिक घूंघट करके जंग जीतते और सम्मान के साथ साथ सुरक्षा भी प्राप्त कर लेते....इतना सुनते ही मित्र का पारा हाई हो गया.....बोले-  तुम कहीं की बात को कहीं से जोड़ देते हो...
मैने कहा, ज़रा ये भी स्पष्ट कर दें कि, घूंघट करने से सुरक्षा कैसे सम्भव है? बिना उत्तर दिये वो तमतमाते हुए चले गये.....
मित्रों मैं उत्तर की प्रतिक्षा में हूँ.....

विस्मय..

विस्मय क्यूँ कर हुआ तुम्हे ये बात हमें तुम बतलाओ,
दीवारें हिलती पर्दों सी देख जरा ना घबराओ,

स्वर्णिम बादल सूरज घेरे किरणें कैदी हो जातीं,
परेशान सा जलता दीपक औ रोगी रोती बाती,
रुग्ण मनस हो चला हो जैसे अंधकार का प्रेत,
मुर्दों की फसलें बह जाती खाली रहता खेत,
चकित क्यूं होता चित्त चरित कुछ तो इसको समझाओ,

विस्मय क्यूँ कर हुआ तुम्हे ये बात हमें तुम बतलाओ

खड़े हुए सब उसी जगह पर जहाँ से कल भागे थे,
शवों की हड्डी पकड़ के कहते हम तो कल आगे थे,
नित नित धूप जलाती चाँदनी चंदा संग ढलती है,
शहर नही है मरा हुआ यहाँ लाशे तक चलती हैं,
कौतुक मत जानो इसको ना जरा कहीं तुम भरमाओ,

विस्मय क्यूँ कर हुआ तुम्हे ये बात हमें तुम बतलाओ,

कितना सारा नियम बना औ तर्क-वितर्क बहुतेरे,
शब्द लब्ध भी हुए तो क्या मर्कट तो दुनियां घेरे,
काश जो होता मैं उस पल जीवन गीत सुना देता,
सूने से शहरों में साथी प्रीत की रीत चला देता,
भौचक हो क्या देख रहे इक बार मुझे भी अजमाओ,

विस्मय क्यूँ कर हुआ तुम्हे ये बात हमें तुम बतलाओ