मंगलवार, 18 नवंबर 2014

फेरा..

छोड़ दो फेरा ग्रहों का तुम शनि के घर में हो,
शांति की हो बात कैसे आत्मा जब डर में हो,
खोजते हो रास्ते पर खो चुकी उम्मीद को,
चमक से लुट जाओगे चोरों के शहर में हो,
पालते हो स्वप्न क्यों स्वाभिमानी चैन के,
आँसुओं से है जो गीला तुम उसी बिस्तर में हो,
पेट भर खाना जुगाड़ो बेशरम बन कर रहो,
फिर तराजू ले के बैठो तुम उसी स्तर में हो,
पीठ पर थपकी यहाँ पर मुफ्त में मिल जायेगी,
मिलती हैं मीठी बोलियां फ्री तुम उसी के दर में हो,
पत्नी तो पल पल प्रश्न करती ही रहेगी शान से,
शुक्र है घर पर नहीं तुम आज भी दफ्तर में हो।

भाई-भाई

भाई-भाई..

तुमने खूब सवाल किये हैं,
हमने अपने होंठ सिंये हैं,
कातर आँखें पलक झपकती,
साथ ये कैसा अलग जिये हैं,

हरदम करते हो मनमानी,
फिर कहते हो गई नादानी,
तर्क कुतर्कों से करते हो,
हर हरकत की खैरमख्वानी,

जी भर जाये जब जिद्दों से,
ना रहना फिर शरमिंदो से,
कर लेना तुम सोंच को व्यापक,
दुनियाँ भरी हुई गिद्धों से,

तुमने खूब सवाल किये हैं,
हमने अपने होंठ सियें हैं,
इसी तरह बचपन से अबतक,
हम तुम दोनो साथ जिये हैं।

गीत- करवाचौथ-हुदहुद..

चाँद निकल आया जो छत पर चढ कर आई तुम,
लाज के मारे तारे छुप गये हो गये सब गुमसुम,
सुर्ख सुहानी चूनर तेरी यूँ लहराती है,
जैसे कोई गुड़िया अपने घर को जाती है,
नेह का अम्बर ओढ़े सिर पर जो मुस्काईं तुम,
लाज के मारे तारे छुप गये हो गये सब गुमसुम,
सजना तेरा सजनी साजन को बहलाता है,
बिंदिया काजल टीका गीत मिलन के गाता है,
तेरे पैरों में पायल गोरी यूँ इतराती है,
निर्मल कोई धार नदी की कल कल गाती है,
प्रेम सुधा का प्याला भर छलकाती आईं तुम,
लाज के मारे तारे छुप गये हो गये सब गुमसुम,
चाँद निकल आया जो छत पर चढ कर आई तुम,










बैरी हुदहुद का कम्पू में जब से हुआ है आना,
दिल बेइमान हुआ है मेरा मौसम हुआ सुहाना।

वसंत..

वसंत तुम क्यों आ जाते हो,
गीत निर्मल नेह का,
तुम क्यों सुनाते हो,
वसंत तुम क्यों......

अवरुद्ध होता ह्रदय कम्पन,
सुरभि सुरभित नेह ये मन,
प्रकृति का मेला धरा पर,
उत्फुल लगाते हो,
वसंत तुम क्यों आ जाते हो...

नव चेतना भरते धरा में,
व्यापते जर औ जरा में,
नापते हो दृष्टि के सुख,
विरहन को तपाते हो,
वसंत तुम क्यों आ जाते हो......

प्रकृति के रंगीन झरने,
मन मनोहर विपुल सपने,
भ्रमर कलियों के ह्रदय,
तुम क्यों रिझाते हो,
वसंत तुम क्योंआ जाते हो......

स्वार्थी

हमने कुछ नहीं किया तुम्हारे लिये,
हम तो अपने हाँथ के छालों को देखते रहे,
सहेजते रहे दर्द का एक एक कण,
जिससे मेरे साथ के लोग खुश रहे हर क्षण,
भावुकता का हास जारी रहा अंतस में,
संवेदनाएं पीछे छूटती रहीं हरदम,
हम खुशियों की चाहत में भागते रहे,
भीड़ में अकेले प्रकाश को छोड़ कर,
एकत्रित भी हुआ था बहुत कुछ सबके लिये,
उस "सब" में शायद मैं कभी फिट ना हो सका,
अभी भी नही हूँ और दौड़ रहा हूँ,
भीड़ में अकेले असहाय,
आज भी मै बता नही सकता,
मैने क्या किया तुम्हारे लिये,
वाकई मर्जी मेरी थी और आज भी है,
सर्वशक्तिमान की प्रेरणा निहित है,
कुछ भी होने में कुछ भी करने में,
समय ने माध्यम चुना मुझे,
चुना सबने समय समय पर,
मुझे स्वहितार्थ सप्रयोजन,
बस मैं बता नहीं सकता कि,
मैने क्या किया किसी के लिये,

जहरीला धुआँ

पीला है पका है ऊपर से टपका हुआ है,
जो चमका एक बार वो चपका हुआ है।

वाह वाह का शोर सुन के न रहना भरम में,
ये हिंदी का साहित्य भी एक अंधा कुंआ है,

दिखती है दूर तक इंसानों की ही भीड़,
मजाल है जो दिल को किसी ने भी छुआ है,

खुद मे ही है बाँकी शराफत का सिलसिला,
सलामत रहे ता-उम्र बस ये ही दुआ है,

बड़ा किया है वक्त ने शोलों में तपा कर,
उठता हुआ जो दिखता है जहरीला धुंआ है

कविताई

प्रगति का गीत सुना हमने,
नैतिकता मचल उठी बौराई,
रोक दिया पथ शब्द तिरोहित,
हुए सभी प्रतिमा घबराई,
पहरेदार हैं हर पहलू के,
स्थितियों संग रहे दिखाई,
दिखें सलोनी गाँव की गलियाँ,
पर दिखती विरहन अमराई,
लिखा किसी ने नहीं मरण को,
वरण क्यों करती है तरुणाई,
कलप रहा है ह्रदय प्रकृति का,
नज़र ना आती है अरुणाई,
आस का श्वांस रोके ना रुके,
सृष्टि का सार है या सरिताई,
कालीदास ना हो पाये हम,
चूल्हे भाड़ गई कविताई,

खोज

सर झुकाये सड़क पर चलते हुए,
तलाश करती रहती नज़रें,
सड़क पर पड़ी बेतरतीब चीज़ें,
सहजने में लगे लोग एक एक पल,
लोगों की नज़रे मुझ पर हैं,
पूँछा किस पल की तलाश है,
मेरा जवाब मुस्कराहट में शामिल था,
मै चलता रहा तलाशते हुए,
लोग भी पीछे चलने लगे,
सभी तलाश रहे हैं शायद,
मैं चिल्लाया..ऐ लोगों तुम क्या तलाश रहे हो!!?
लोगों ने मेरी ओर देखा मुस्कराये,
नज़रें फिर तलाशने लगीं सभी की,
कोई कोई उठा लेता था झुक कर,
अव्यक्त और अनमोल चीज़ों को,
तलाश की पूर्णता का अर्थ जिंदगी नहीं,
पूर्णता तो मौत मे निहित है,
तलाशते रहते हैं हम जिंदगी-ज़िंदगी भर।