शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

हँसी

मेरे बच्चे हर बात में हँसी खोज लेते हैं,
जैसे फूल काँटों में भी खुशी खोज लेते हैं,

भूल जाते हैं हर बात जो चुभती हो कहीं,
ऐसी हर बात में नाखुशी खोज लेते हैं,
मेरे बच्चे हर बात में हँसी.................

सितम भी सह ले जो हँस कर जमाने के,
ऐसी कोई मासूम दिलकशी खोज लेते हैं,
मेरे बच्चे हर बात में हँसी...................

मेरे घर में सहमे नही रहते बच्चे हमसे,
वो मुझमें ही कोई हमनशीं खोज लेते हैं,
मेरे बच्चे हर बात में हँसी....................

बड़े प्यारे हैं बच्चे मेरे जरा सादा से हैं,
हर रंग में खुशबू - ए-गुलाब सी खोज लेते है,
मेरे बच्चे हर बात में हँसी.....................

मंगलवार, 18 नवंबर 2014

फेरा..

छोड़ दो फेरा ग्रहों का तुम शनि के घर में हो,
शांति की हो बात कैसे आत्मा जब डर में हो,
खोजते हो रास्ते पर खो चुकी उम्मीद को,
चमक से लुट जाओगे चोरों के शहर में हो,
पालते हो स्वप्न क्यों स्वाभिमानी चैन के,
आँसुओं से है जो गीला तुम उसी बिस्तर में हो,
पेट भर खाना जुगाड़ो बेशरम बन कर रहो,
फिर तराजू ले के बैठो तुम उसी स्तर में हो,
पीठ पर थपकी यहाँ पर मुफ्त में मिल जायेगी,
मिलती हैं मीठी बोलियां फ्री तुम उसी के दर में हो,
पत्नी तो पल पल प्रश्न करती ही रहेगी शान से,
शुक्र है घर पर नहीं तुम आज भी दफ्तर में हो।

भाई-भाई

भाई-भाई..

तुमने खूब सवाल किये हैं,
हमने अपने होंठ सिंये हैं,
कातर आँखें पलक झपकती,
साथ ये कैसा अलग जिये हैं,

हरदम करते हो मनमानी,
फिर कहते हो गई नादानी,
तर्क कुतर्कों से करते हो,
हर हरकत की खैरमख्वानी,

जी भर जाये जब जिद्दों से,
ना रहना फिर शरमिंदो से,
कर लेना तुम सोंच को व्यापक,
दुनियाँ भरी हुई गिद्धों से,

तुमने खूब सवाल किये हैं,
हमने अपने होंठ सियें हैं,
इसी तरह बचपन से अबतक,
हम तुम दोनो साथ जिये हैं।

गीत- करवाचौथ-हुदहुद..

चाँद निकल आया जो छत पर चढ कर आई तुम,
लाज के मारे तारे छुप गये हो गये सब गुमसुम,
सुर्ख सुहानी चूनर तेरी यूँ लहराती है,
जैसे कोई गुड़िया अपने घर को जाती है,
नेह का अम्बर ओढ़े सिर पर जो मुस्काईं तुम,
लाज के मारे तारे छुप गये हो गये सब गुमसुम,
सजना तेरा सजनी साजन को बहलाता है,
बिंदिया काजल टीका गीत मिलन के गाता है,
तेरे पैरों में पायल गोरी यूँ इतराती है,
निर्मल कोई धार नदी की कल कल गाती है,
प्रेम सुधा का प्याला भर छलकाती आईं तुम,
लाज के मारे तारे छुप गये हो गये सब गुमसुम,
चाँद निकल आया जो छत पर चढ कर आई तुम,










बैरी हुदहुद का कम्पू में जब से हुआ है आना,
दिल बेइमान हुआ है मेरा मौसम हुआ सुहाना।

वसंत..

वसंत तुम क्यों आ जाते हो,
गीत निर्मल नेह का,
तुम क्यों सुनाते हो,
वसंत तुम क्यों......

अवरुद्ध होता ह्रदय कम्पन,
सुरभि सुरभित नेह ये मन,
प्रकृति का मेला धरा पर,
उत्फुल लगाते हो,
वसंत तुम क्यों आ जाते हो...

नव चेतना भरते धरा में,
व्यापते जर औ जरा में,
नापते हो दृष्टि के सुख,
विरहन को तपाते हो,
वसंत तुम क्यों आ जाते हो......

प्रकृति के रंगीन झरने,
मन मनोहर विपुल सपने,
भ्रमर कलियों के ह्रदय,
तुम क्यों रिझाते हो,
वसंत तुम क्योंआ जाते हो......

स्वार्थी

हमने कुछ नहीं किया तुम्हारे लिये,
हम तो अपने हाँथ के छालों को देखते रहे,
सहेजते रहे दर्द का एक एक कण,
जिससे मेरे साथ के लोग खुश रहे हर क्षण,
भावुकता का हास जारी रहा अंतस में,
संवेदनाएं पीछे छूटती रहीं हरदम,
हम खुशियों की चाहत में भागते रहे,
भीड़ में अकेले प्रकाश को छोड़ कर,
एकत्रित भी हुआ था बहुत कुछ सबके लिये,
उस "सब" में शायद मैं कभी फिट ना हो सका,
अभी भी नही हूँ और दौड़ रहा हूँ,
भीड़ में अकेले असहाय,
आज भी मै बता नही सकता,
मैने क्या किया तुम्हारे लिये,
वाकई मर्जी मेरी थी और आज भी है,
सर्वशक्तिमान की प्रेरणा निहित है,
कुछ भी होने में कुछ भी करने में,
समय ने माध्यम चुना मुझे,
चुना सबने समय समय पर,
मुझे स्वहितार्थ सप्रयोजन,
बस मैं बता नहीं सकता कि,
मैने क्या किया किसी के लिये,

जहरीला धुआँ

पीला है पका है ऊपर से टपका हुआ है,
जो चमका एक बार वो चपका हुआ है।

वाह वाह का शोर सुन के न रहना भरम में,
ये हिंदी का साहित्य भी एक अंधा कुंआ है,

दिखती है दूर तक इंसानों की ही भीड़,
मजाल है जो दिल को किसी ने भी छुआ है,

खुद मे ही है बाँकी शराफत का सिलसिला,
सलामत रहे ता-उम्र बस ये ही दुआ है,

बड़ा किया है वक्त ने शोलों में तपा कर,
उठता हुआ जो दिखता है जहरीला धुंआ है

कविताई

प्रगति का गीत सुना हमने,
नैतिकता मचल उठी बौराई,
रोक दिया पथ शब्द तिरोहित,
हुए सभी प्रतिमा घबराई,
पहरेदार हैं हर पहलू के,
स्थितियों संग रहे दिखाई,
दिखें सलोनी गाँव की गलियाँ,
पर दिखती विरहन अमराई,
लिखा किसी ने नहीं मरण को,
वरण क्यों करती है तरुणाई,
कलप रहा है ह्रदय प्रकृति का,
नज़र ना आती है अरुणाई,
आस का श्वांस रोके ना रुके,
सृष्टि का सार है या सरिताई,
कालीदास ना हो पाये हम,
चूल्हे भाड़ गई कविताई,

खोज

सर झुकाये सड़क पर चलते हुए,
तलाश करती रहती नज़रें,
सड़क पर पड़ी बेतरतीब चीज़ें,
सहजने में लगे लोग एक एक पल,
लोगों की नज़रे मुझ पर हैं,
पूँछा किस पल की तलाश है,
मेरा जवाब मुस्कराहट में शामिल था,
मै चलता रहा तलाशते हुए,
लोग भी पीछे चलने लगे,
सभी तलाश रहे हैं शायद,
मैं चिल्लाया..ऐ लोगों तुम क्या तलाश रहे हो!!?
लोगों ने मेरी ओर देखा मुस्कराये,
नज़रें फिर तलाशने लगीं सभी की,
कोई कोई उठा लेता था झुक कर,
अव्यक्त और अनमोल चीज़ों को,
तलाश की पूर्णता का अर्थ जिंदगी नहीं,
पूर्णता तो मौत मे निहित है,
तलाशते रहते हैं हम जिंदगी-ज़िंदगी भर।

शनिवार, 1 नवंबर 2014

कविताई..

प्रगति का गीत सुना हमने,
नैतिकता मचल उठी बौराई,
रोक दिया पथ शब्द तिरोहित,
हुए सभी प्रतिमा घबराई,
पहरेदार हैं हर पहलू के,
स्थितियों संग रहे दिखाई,
दिखें सलोनी गाँव की गलियाँ,
पर दिखती विरहन अमराई,
लिखा किसी ने नहीं मरण को,
वरण क्यों करती है तरुणाई,
कलप रहा है ह्रदय प्रकृति का,
नज़र ना आती है अरुणाई,
आस का श्वांस रोके ना रुके,
सृष्टि का सार है या सरिताई,
कालीदास ना हो पाये हम,
चूल्हे भाड़ गई कविताई,

सोमवार, 22 सितंबर 2014

गरिमा

लेओ अब का कीन जाय..           अब तो मोदियौ कहि दीन्हेन कि, परिवारिक संस्कृति विकसित कीन जाय.
हा हा हा.......वइसे ई बात से कॉग्रेसी बड़े खुस भे होइहैं...कि आखिर आये वई रस्ता पर..लेकिन गज्जब की बात तौ या है कि, मोदी जी का कउनौ परिवार तो है नहीं. फिर !!
फिर उई मौका की बात कई दीन्हेन कि, भारत सोने केर चिरइय्या रहए मगर हम आसमान मा उड़ब छाँडि के जमीन पर आ गेन मुला अब हमरे पास फिर से उड़ै केर मौका है.
तो मौका तो बाद मा दीख जाई पहिले चउका द्याखौ..नहीं तो पारिवारिक संस्कृति विकसित करै के चक्कर मा ना घरु के होइहौ ना घाटु के..
कायदे से दीख जाय तो देस मा पारिवारिक संस्कृति विकसित करै का श्रेय कॉग्रेसै का मिलै क चही..
भाई हम तौ पूरे नम्बर दइ के महाकोढ़पती मान लीन है कॉग्रेस का..
काहे से कि दमाद,लरिका,बिटिया,महतारी,अजिया,बाबा, अउर आगेओ न जानै केत्ते नाती पोता कस्मीर से लइके क्न्याकुमारी तक कॉग्रेसी परिवार की विरासत सम्हारे हैं..
खैर या तौ पुरान बतकही राहए.. नई बात या है कि जंऊ नई बहुरिया हैं वऊ सब उदास होइ गई है..या पारिवारिक संस्कृति वाली खबर सुनिके..काहे से कि मनु मा स्वाचौ कुछु होइ जात है कुछु..अब बुढइ बुढ़वा का को दस दाँय चाह दे..
फिर बुढ़ापे मा चाह,बिस्कुट,दूध,मलाई, हद्द होइगै...अरे यो सब लरिकन खातिर होत है कि बुढ़वन खातिर...हाँ एक बात हमका नीक लागि..उई कहेन " स्त्री गरिमा बनी रहए का चही" लेकिन हिंया तो एत्ते दिमागी परे हैं कि गरिमै की रोटी खा रहे हैं जब तक ई गरिमा पर बहस करिके मामला गरमा न दें तब तक इनका चैनै नाइ आवत..अब द्याखौ भइया हम तौ तिखार दीन तुमहूं तनक तिखारौ..

रविवार, 31 अगस्त 2014

हाय-क्यूँ...!

1-जय गणेश,
छि: उत्तर प्रदेश,
गर्मी अशेष,

2-गर्मी पसीना,
गणेशोत्सव महीना,
मुश्किल जीना।

3-वो चूहा चोर,
कलियुग है घोर,
जोर का शोर।

4-सैलाबी आँसू,
बा बहू और सासू,
कहानी धाँसू।

5-प्रभु छेड़ो ना,
करने दो आराम,
दिल तोड़ो ना।

6-ऊपर देर,
मंदिर में अंधेर,
वक्त का फेर।

7-होली यूँ जली,

लपटे रंगीन थी,

सूनी थी गली।


8-पास पैसे थे,

पिचकारी लेनी थी,

फिर से गिने।

गुरुवार, 28 अगस्त 2014

हे गणपति महराज

भक्त तुम्हारे हम भी हैं हे गणपति हम पर दया करो,
निर्धन हैं पर भक्त तो हैं हे गणपति हम पर दया करो,
विघ्नविनाशक तुम हो हे प्रभु विपति निवारणहार हो,
हम संकट में पड़े हुओं के तुम ही तारणहार हो,
आधी सड़क को प्रभु घेरे हो कैसा ये इंसाफ है,
धनी भगत के लिये प्रभू क्या सारे अवगुण माफ हैं,
मुझको लगता हे गणपति तुम डीजे धुन में मस्त हो,
निर्धन भक्त तुम्हारा चाहे सड़क पे कितना पस्त हो,
पेट तुम्हारा भरा हुआ है मोदक और मिठाई सेे,
हम तो भूखे फंसे जाम में भक्तों की निठुराई सें,
आरति के संग डिस्को भी होता तुम्हरे दरबार में,
चूहा भी है पूँछ पटकता मिल भक्तो के प्यार में,
वारे न्यारे लाखों के पूजा में रोज ही होते हैं,
पर पंण्डाल के बाहर बच्चे भूँखे पेट ही सोते हैं,
हे प्रभु कुछ तो दया करो क्या कलियुग में सब भूल गये,
रंग रंगीली रास रचा मस्ती का  झूला झूल गये,
बने मदारी डगर डगर पर प्रभु मंदिर में अच्छे थे,
सिद्धिविनायक लम्बोदर दरबार तुम्हारे सच्चे थे,
अब तो बैठे हो भगवन तुम चौराहों और नुक्कड़ पे,
पेट में चूहे कूद रहे है दया करो मुझ भुख्खड़ पे,
सुलझा दो ये जाम डगर का करते तुम उपकार हो,
हे जग वंदन पार्वती नंदन तुम ही पालनहार हो,
नाच नचा लो ग्यारह दिन फिर होगा विसर्जन धूम से,
परेशान सब राही होंगे हल्ला गुल्ला बूम से।

बुधवार, 20 अगस्त 2014

हे प्रभु देवा.

अब शुरू हुई पकड़म पकड़ाई..इस पकड़म पकड़ाई को देख मीडिया भी चकराई...
वो कहावत तो सबने सुनी ही होगी. उँगली पकड़ के पहुँचा पकड़ना..बस अब यही पहुँचा पकड़ाई हो रही है सत्ता से बाहर हुए लोगों में. और जितना बचा खुचा सीना है उसी को तान के हो रही है..बुझाया कि नाहीं  ई लाल बुझक्कड़ी में मित्र लोग खूब उलझे हुए हैं..और इसी उलझन में हम सब आलू की बेतहाशा बढ़ती कीमत भी भूल जाते हैं..लेकिन हाय रे बिहार. यहाँ के लोग लालू को ना भूल पायेंगे.
चाहे कितनहो चारा कोई चर जाये. गिन्नीज़ बुक वाले लगता है आराम फरमाने लगे हैं नहीं तो आज चारा के मामले में  बिहार का नाम ई विश्व रिकार्ड बुकवा में जरूर होता. खैर कोई बात नहीं भइया गिन्नीज वालों अब तो चेतो.
चारा ना सही पहुँचा पकड़ाई में ही नाम डाल दो. भारतीय राजनीति के नाम भी रिकार्ड लिख दो. वइसे यहाँ सब एक से एक लिखने वाले हाजिर हैं लेकिन मजाल है जो कोई राजनीति के रिकार्ड पर बात करे या पकड़म पकड़ाई की चर्चा करे.....हे प्रभु देवा, खूब बाँट रहे हो मेवा..

बुधवार, 13 अगस्त 2014

स्मृणिका.

मंज़िल को पास जो देख लिया,
बेकल हो हर पल बीत रहा,
स्मृणिका को नमन करूँ,
पल पल अब मेरा रीत रहा,

चल पड़े सभी थे साथ मेरे,
थल नभ सौरभ वृंद सभी,
स्वांस भी मेरे साथ रही,
औ जीवन के मकरंद सभी,

इक इक क्षण को गिनूँ अगर,
अनगिनत ना बीते होंगे क्षण,
सब उल्लासों का लेखा दूँ,
कम होंगे ना जीवन के वृण,

सारी रीत निभा कर के,
अब बना है जीवन गीत मेरा,
स्वाँस रहे ना साथ भले,
बस साथ रहे वो मीत मेरा,

मंज़िल को पास जो देख लिया,
बेकल हो हर पल बीत रहा,
स्मृणिका को नमन करूँ,
पल पल अब मेरा रीत रहा,

रविवार, 10 अगस्त 2014

हितैषी..

मत आना मुझे देखने,
जब अस्पताल में हो बसेरा मेरा,
मत सोंचना मेरे बारे में तुम,
कोई पीड़ा का पैमाना लेकर,
अपनी छुद्र  मानसिकता से,
बाहर रखना मेरे परिवार को भी,
मैं कोई प्रदर्शन की वस्तु नहीं हूँ,
क्या देखोगे?क्यों देखोगे?
क्या देखोगे रुग्णावस्था मेरी?
या असहाय हो चुके मेरे बच्चों के चेहरे?
या फिर भविष्य से डरी हुई मजबूर स्त्री?
पीला मुखमण्डल सूखे होंठ,
तुमको तो ये सब ग्लैमरस लगते हैं,
सहयोग राशि देते हुए उसकी उँगली को छूना,
और अधिक सहायता के लिये पूँछना,
तुम्हारी आँखों की चमक,
तुम्हारी शैतानी मुस्कराहट,
बेहोश होने से पहले मैं देख चुका था,
क्या बहुत जरूरी है इस अमानवीय,
सामाजिक कर्तव्य को पूरा करना?
या कि, मेरी असहाय अवस्था को,
देखना अत्यंत आवश्यक है?
मैं जानता हूँ ये भी कि,
घृणा है तुम्हे इन जगहों से,
सहज नही हो पाते हो तुम,
नाक पर रूमाल बाँध कर वार्ड में तुम्हारा आना,
अपने जूतों में असंख्य हानिकारक,
जीवाणुओं को साथ लेकर,
फिर हितैषी कैसे हो सकते हो मेरे,
मात्र तुम्हारे देखने भर से क्या,
कोई चमत्कार हो जायेगा?
मैं स्वस्थ हो कर तुमसे हाँथ मिलाऊँगा?
मेरी समस्त पीड़ा और संताप हर लोगे तुम,
काश़ ऐसा कर पाते तुम.....

सोमवार, 28 जुलाई 2014

ईद..

हम ईद मुबारक कैसे कह दें,
जब जंग छिड़ी हो अपनों में,
और आग लगी हो सपनों में,
हम ईद मुबारक कैसे कह दें?
जब रोटी चाँद का टुकड़ा हो,
बच्चों का रोता मुखड़ा हो,
हम ईद मुबारक कैसे कह दें?
जब खून लगा हो हाँथों में,
और सूनी माँग हो माथों में,
हम ईद मुबारक कैसे कह दें?
जब कब्र में बिस्तर लगता हो,
और बस्तों में बम मिलता हो,
हम ईद मुबारक कैसे कह दें?
हम ईदी की क्या बात करें,
खुशियों की क्या सौगात भरें,
फिर ईद मुबारक कैसे कह दें?
हो तुम्हे मुबारक नादानी,
और बच्चों की ये कुर्बानी,
हम ईद मुबारक कैसे कह दें????

बुधवार, 23 जुलाई 2014

पुरवा.

महक उठी है शाम सुहानी पुरवा पागल हो बैठी,
मै बिरहन ऐसी बौराई अँसुवन आँचल धो बैठी,
दर्पन मुखड़ा नैन निहारें जब दर्पन मैं देखूँ,
रंग नशीला नैनन देखूँ सुधबुध सारी खो बैठी,
महकी मेरे मन की बगिया कलियाँ फूलन लागीं,
याद हिया में पिया समाई सम्हली फिर मैं रो बैठी,
सोंचूँ तज दूँ नींद नयन की चंदा जिया जरावे,
बाट निहारूँ रात रात भर जागी फिर मैं सो बैठी,
मै मतवारी हुई बावरी याद तेरी जब आवे,
मैं बैठी की बैठी रह गई याद में तेरी जो बैठी,
सखियन को कैसे बतलाऊँ लाज मोहे है आवे,
सोंचा था बेला महकेगा पर काँटे मैं बो बैठी,
महक उठी है शाम सुहानी पुरवा पागल हो बैठी,

सोमवार, 21 जुलाई 2014

दिल की बात-2.


सुप्रभात मित्रों... आज की भोर कुछ विशेष होनी चाहिये.
पिछले कुछ दिनों से देश में महिला अपराधों की बाढ़ सी आ गई है. हर तरफ चर्चा का बाज़ार लगा है किसी को तस्वीरें नागवार गुज़रती है तो कोई चालचलन पर कीचड़ उछाल रहा है. किसी को स्त्री स्वतंत्रता सुहाती तो कोई कपड़ों को लेकर परेशान है..अपराधियों को कोसने के अतिरिक्त तथा इन दुुर्दान्त घटनाओं  पर चर्चा करने के सिवा कोई भी कुछ नहीं कर पा रहा है. इन सब बातों के बींच बेचारी अबला स्त्री सदियों से पिस रही है.
निदान क्या है? समाज में महिलाओं का शोषण कब रुकेगा.? हमारे देश में समाज में घरों में वास्तव में देवी का स्थान नहीं इंसान से बराबरी का दर्जा महिलाओं को  कब प्राप्त होगा? साक्षरता,परिस्थितियों से जूझने का माद्दा, सहनशीलता,सरलता,सहजता,सुचिता आदि सारे गुण होने के बाद भी स्त्री दशा में जो सुधार दिखने चाहिये थे वो कहीं नहीं दिखते. वास्तव में आज भी हम सभी पुत्र मोह, वंश वृक्ष को हरियाते हुए देखने की लिप्सा से जरा भी मुक्त नहीं कर पाये हैं.और प्राकृतिक रूप से भी स्त्री पुरुष की अपेक्षा दुर्बल है. यही प्राकृतिक दुर्बलता महिलाओं के आत्मविश्वास में कमी उत्पन्न करने का कारण है और शिक्षा के अवसर तथा स्वतंत्रता मिलने के बाद भी नारी दशा में कोई विशेष सुधार दृष्टिगत नही होता. आज हमें गम्भीरता पूर्वक विचार करने की आवश्यकता है कि अपने देश में समाज में तथा घर में हम नारी के सम्मान को किस प्रकार बचाये रख सकते हैं मैं बढ़ाने की बात नहीं कर रहा बस जितना है उसी को बचाना है बनाये रखना है.
इसलिये आज और अभी हम सभी को विशेषरूप से महिला मित्रों से मेेरा निवेदन है कि भावी माताओं को हम आत्मविश्वास से परिपूर्ण करने के लिये उचित कदम उठायें इसके लिये हमारा पहला प्रयास बेटियों की शारीरिक दुर्बलता को हटा कर उनमें साहस एवं शक्ति का संचार करना होगा और इस उत्तम कार्य के लिये स्कूल से अच्छा माध्यम कोई नहीं हो सकता...स्कूल स्तर पर ही बच्चियों को जूडो,कराटे का प्रशिक्षण दिलाने की व्यवस्था हमें करनी होगी.
जिस प्रकार स्कूलों में स्काउट और गाइड तथा एन.सी.सी. के प्रशिक्षण की व्यवस्था होती है उसी प्रकार जूडो कराटे के प्रशिक्षण की व्यवस्था भी लड़कियों के लिये प्रत्येक स्कूल में अनिवार्य रूप से होनी चाहिये...तो सम्भव है हम किसी हद तक महिला अपराधों में हो रही वृद्धि को रोकनेे में सफल हो पायें।

बुधवार, 16 जुलाई 2014

दिल की बात

करुँगा तुमको जी भर प्यार,
पहले दिल की बात बता दो,
रूठो ना हमसे हर बार,
प्यार का पारावार बता दो,
करुँगा तुमको जी भर....पहले दिल की बात....
बात तुम्हारी गुड़ियों वाली,
छलक रही यौवन की लाली,
आखिर कब तक करोगी,
हमसे हँसीं ठिठोली रार बता दो,
करुँगा तुमको जी भर....पहले दिल की बात....
पहरों में रहती हो ऐसे,
पलक में कोई ख्वाब हो जैसे,
देखूँ छुप छुप मिलन हो कैसे,
फिर से अगली बार बता दो,
करुँगा तुमको जी भर....पहले दिल की बात...
सावन आया पड़ गये झूले,
हम तुम मिल कर गगन को छूलें,
भोली सूरत वाली आकर,
प्यार का मुझको सार बता दो,
करुँगा तुमको जी भर.....पहले दिल की बात....

सोमवार, 16 जून 2014

दो-हाँ...

सुर भी सूखे हो चले सहमे से हैं राग,
आसमान सेे आजकल बरस रही है आग।


कलम घिसाई क्या करें सूखी स्याही साथ,
बर्फ अंगीठी में भर के ताप रहे हैं हाँथ..


फसल उगी दीवार की,ह्रदय नेह के बींच,

वाणी निर्मल कीजिये,प्रेम की रेखा खींच,


दीवारें जब से बनी,रिश्तों में तलवार,

प्रेम पिपासा मर चुकी,भटक रहा संसार


बैठे हैं सब लालची,मुँह में लार दबाय,

स्वारथ है इनमें भरा,चाहे देश बिकाय,


राजनीति के दाँव में,पड़ते पांसे रोज,

नीलामी हो देश की,ऐसी करते खोज,


भारत देश महान है,ऐसा कहते लोग,

भृष्टाचारी पाप का,चिपका इसके रोग,


ऋषि मुनियों के देश में,मचता हाहाकार,

प्रवचन देते चोर अब,धर्म बना व्यापार,


अपनी गठरी हो भरी,देश भाड़ में जाय,

राजनीति के खेल मा,कुर्सी रोज बिकाय,


ह्रदय विराजे ईर्ष्या,रोगी काया होय,

अपना तन जर्जर करे,जीवन भर वो रोय,


अहंकार ईर्ष्या बुरी,बुरा मोह मद लोभ,

विष बेली यह ज्यों बढै,व्यापै मन में छोभ,


रविवार, 8 जून 2014

दिल की बात-1.

देश में बलात्कार की दुर्घटनायें दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही हैं... महिला हित के लिये तमाम नियम कानून बनाये गये किंतु इन कानूनों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं...रोज कहीं ना कहीं बलात्कार एवं हत्या की दुर्घटनायें घट रही हैं...और प्रशासन के लोग सुशासन के नाम पर नाम मात्र का मुआवजा दे कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। बेहतर हो कानून समाप्त कर के प्रत्येक अपराध के लिये पीडित को मुआवजा देने की परम्परा प्रारम्भ कर दी जाय.. जैसे बलात्कार हत्या के लिये पाँच लाख.. सिर्फ बलात्कार के लिये चार लाख.... डकैती के लिये तीन लाख... चोरी के लिये दो लाख.... राहजनी के लिये एक लाख... कम से कम प्रशासन के लोगों की उलझन तो कम होगी और वो अपना समय अन्य विकास कार्य में दे सकेंगे.. कुछ लोग इस मुआवजा परम्परा का फायदा उठा ही रहे हैं.. जैसे बीते कुछ वर्षों में किसानों में आत्महत्या करने की होड़ सी लगी थी...पता चला किसान कर्ज अदा ना कर पाने के कारण आत्महत्या कर रहे हैं...आत्महत्या कर लेने के बाद कर्ज भी अदा परिवार भी खुशहाल...ये ऐसे कि कर्ज पचास हजार रुपये और आत्महत्या के बाद परिवार को मिलने वाला मुआवजा दो लाख रुपये...आत्महत्या करो मुआवजा लो सब खुश...कहीं यही तो नही हो रहा? क्यों कि जब देश में गरीबी के कारण माँ अपने जिगर के टुकड़े को दो जून की रोटी के लिये बेंच सकती है तो फिर मुआवजा पाने के लिये गरीबी कम करने के लिये किसी भी स्तर तक जाया जा सकता है... क्रूरता और अत्याचार की इंतहा है ये कि, पैसों की खातिर दहेज के नाम पर किसी बेटी को जिंदा जला के मार डालना फिर भी हमारे सभ्य समाज में कोई हलचल नहीं होती. महिलाओं की साक्षरता का प्रतिशत बढने के अलावा महिलायें आज प्रत्येक क्षेत्र में कर्मठता से पुरुषों के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहीं हैं...फिर भी बड़े अफसोस की बात है कि आज देश में एक भी महिला संगठन इतना सशक्त नहीं है जो महिलाओं पर हो रहे अत्याचार को पुरजोर तरीके से उठा सकें... महिलाओं पर पुरुष मानसिकता का कहर यहीं पर नहीं रुका वीभत्सता और क्रूरता की सारी सीमायें तोड़ते हुए "कन्या भ्रूण" की हत्या करने का साहस स्त्री पीड़न का चर्मोत्कर्ष कहा जाय तो कोई अतिश्योक्ति ना होगी. मेरे विचार से महिलाओं पर हो रहे अत्याचार और उत्पीड़न को कम किया जा सकता है.. महिलाओ को आर्थिक रूप से सशक्त बना कर और बालिकाओं के लिये नर्सरी स्कूल से ही जूडो कराटे का प्रशिक्षण अनिवार्य कर दिया जाना चाहिये...हाँला कि आज महिलाओं के रूप से मजबूत होन में इजाफा हुआ है किंतु शारिरिक शक्ति में वो आज भी परुषों का मुकाबला करने में अक्षम हैं निश्चित ही जूडो कराटे को बालिककाओं के लिये अनिवार्य शिक्षा बना कर महिलाओं को शारिरिक एवं मानसिक स्तर पर पुरुषों के समकक्ष लाया जा सकता है इससे लड़कियों में आत्मविश्वास बढ़ेगा और हमारी आने वाली पुरुष पीढ़ी अवश्य ही सहनशील तथा विनम्र हो जायेगी इसमें कोई संदेह नहीं है.