शनिवार, 23 नवंबर 2013

अधूरा इंसान

हमारे यहां आपस में सिर्फ बच्चे बोलते हैं,
बड़ों को फुरसत नहीं है,
फुरसत भी है तो मोहलत नही है,
दिलो मे मोहब्बत कि शोखी नही है,
और हमने भी मूक विजय अभी तक देखी नही है,
जीत का जज़्बा ह्रदय में भरा है,
घ्रड़ा के बीज से नफ़रत का वृक्ष हरा है,
गुज़री है अब तक,
उमर तो गुजरती ही रहेगी,
दिलों में नफ़रत भी रहेगी,
प्यार का अहसास अब रातों की बात हैं,
बडी ही अजीब इंसानों की जात है,
प्रवचन देते बड़े बड़े,
पर घर में भी सब मरें लड़ें,
दिखावों में जीना ही नसीब है,
जो दिखावे से दूर वो ही गरीब है,
अमीरी चाहता हर कोई है,
न जाने कहाँ इंसानियत सोई है,
जानवर थे हम,
ज़रूरतों ने इंसा बनाया,
इंसा बने हम तब ज़रूरतों ने ही हैवान बना दिया,
अब तो ज़रूरत बन चुकी है नफरत,
क्या इंसानियत मे ही है कुछ गफ़लत,
हम तो जानवर भी नही हैं,
ना ही बन सके इंसान,
दिखावा किया इंसान का,
और बने रहे हैवान,
काश़ कि सभी हैवान ही होते,
एक दूसरे के लिये शायद हैवान भी रोते,
आज हम आधे अधूरे इंसान ना होते।