गुरुवार, 22 अगस्त 2013

मीठा माहुर.

भूख से लड़ कर भी कैसे मौत कोई रोक ले,
मुनिया की अंतड़ियों को गर सरकार यूँ ही नोच ले,
क्यूँ रहे देता दुहाई नियम और कानून की,
ना गिरा बूंदे जहर की आँख अपनी पोंछ ले।

बहरे शहर में कब तलक चीखेगा यूँ बेसाख्ता,
आँख के अंधे घरों से कैसे कोई झाँकता,
दौड़ कर कैसे उठाते लाश उस मासूम की,
लाश ले अपनी चले मिला जैसा जिसको रास्ता।

सबकी वाणी में यहां पर देखो कैसा ओज है,
कल मरी थी दामिनी और आज कन्या भोज है,
भूख की बातें न कर भूख से बच जाएगा,
खा कर ज़हर स्कूल में अब मरते बच्चे रोज़ हैं।

फिर भी करेंगे गर्व हम खुद पे अपने देश पे,
नाज़ होता ही रहेगा संस्कृति औ परिवेश पे,
मौत चाहे फिर बंटे हर गाँव के स्कूल में,
कल करेंगी पीड़ियां संताप अपने शेष पे।