बुधवार, 17 अप्रैल 2013

दरारों से झांकते लोग


जाने क्यूँ दरारों से झाँकते है लोग,
जैसे ही खोलो द्वार दूर भागते हैं लोग,

किवांड़ दिल के खोल कर पूँछा है बारहाँ,
साँसे बची हैं चंद जाँ चाहते है लोग,

गुज़री तमाम उम्र उमरा तलाशते,
दिल भी नहीं है पास तो क्या चाहते है लोग,

परिंदो पर है नज़र सैयाद की मगर,
घोंसलों से ही परवाज़ चाहते हैं लोग,

फुसफुसा के बात करना हक है सभी का,
महफिलों की शम्मा बना चाहते हैं लोग,

भटक रहे हैं सब किसी की तलाश में,
जो मिल नहीं सकता वही चाहते हैं लोग,

फूलों को भी एक बूंद ओस की तलाश है,
खुशबू नही है अब मकरंद चाहते हैं लोग,

सब कर रहे है साबित खुद को खुदा मगर,
काबिल नही हैं फिर भी हुनर चाहते है लोग,

कहना है कुछ अगर तो कहो प्यार से मगर,
खुद लगाई आग में जला चाहते हैं लोग,

राजेन्द्र अवस्थी (काण्ड)