मंगलवार, 4 सितंबर 2012

कवि और चुनाव

कोई गोष्ठी नहीं मिलती,
किसी पैसे वाले की मुट्ठी नहीं खुलती,
गृहस्थी गाती है गरीबी के गाने,
बीबी को छोड़िये बच्चे भी देते हैं ताने,
जब कवि का दर्द हद से ज्यादा बढ़ गया,
तो कवि भी बेचारा चुनाव लड़ गया,
निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में जैसे ही भरा पर्चा,
कवि चुनाव लड़ रहा है,
हर तरफ इसी बात का होने लगा चर्चा,
जिसने भी सुना हैरत खा गया,
कवि कई उम्मीदवारों को भा गया,
बोले मेरे साथ चल,
मेरी फिजा में चार चाँद लगाएगा,
पारिश्रमिक मै दूंगा
पर कविता विपक्षी के मंच से सुनाएगा,
कवि बोला श्रीमन मैं स्वयं चुनाव लड़ रहा हूँ,
जनता को भा जाए
ऐसी रचना अपने लिये गढ़ रहा हूँ,
ब्लैक एण्ड व्हाइट कविता ईस्टमैन कलर में ढालूँगा ,
मंहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार का तड़का डालूँगा ,
रामदेव जी के मुद्दे की धार,
उन पर हुआ लाठी का प्रहार,
और लोकपाली आँसू,
गज़ब का मुद्दा मिला है धाँसू,
परिणाम आया तो कवि ने कर दिया कमाल,
हर प्रत्याशी का था बुरा हाल,
जमानत भी ना किसी की बच पाई थी,
जीता था तो बस कवि 
क्यों कि,
जनता को सच्चाई की कविता
कवि ने सुनाई थी।

पिंजर



बोरे मे जो हड्डियाँ भरी हुई हैं,
उनमे से कई को मैने पंहचान लिया,  
मेरा कपाल दो टुकड़ों में निकला,
सच और झूठ को परिभाषित करते हुए
सिक्के के दो पहलुओं को दिखाते हुए,                  
अंन्धकार और प्रकाश को ले कर,
बाल रूखे मटमैले कुछ सफेद,
कुछ काले उलझे चक्रवात जैसे,
ह्रदय की हड्डी का पिंजर पूरा समूचा,
प्रेम और वात्सल्य को कैद किये हुए,
संसार जैसा बोरा ढ़ेर सारी हड्डियों से भरा,
भुजा अस्थियाँ कुछ सड़ी गली सी हैं,
दाहिनें हाँथ की तो उँगलियाँ ही है लापता,
उल्टे हाँथ का सब कुछ सीधा सा था,
कमर झुकी है या शायद टूटी हुई है,
दुनिया के दोहरे चरित्र का शिकार,
नैतिक अनैतिक मर्यादा रिवाज़,
के सड़े से कुछ पन्ने बाँकी बचे है अभी,
किन्तु पढ़े नही जा सकते,
तकदीर की तरह,
मिट्टी का भुरभुरापन हड्डियो ने सोंख लिया है,
कलम अस्तित्व बचाने में कामयाब रही,
जिससे लिखी जा सके हड्डियों की दास्ताँ