शनिवार, 7 जुलाई 2012

खुजली

खुजली, क्या है? इस प्रश्न का उत्तर शायद सभी को मालूम है कि,जब भी प्राणी मात्र के तन पर या मन पर,
किसी
अनचाही छुअन का अनुभव होता है चाहे वो भ्रम वश हो या जानबूझ कर हो,
उस
छुअन के आभास को हाँथ से सहला कर या नाखूनों के माध्यम से खरोंच कर मानसिक संतुष्टि  प्राप्त कर,जिस शारीरिक और मानसिक पीड़ा को शांत किया जाता है , उसको खुजली कहते है,प्राचीनकाल से खुजली की दो जातियों के होने का प्रमाण शिला लेखो के माध्यम से प्राप्त होता है,
- व्यक्त खुजली २- अव्यक्त खुजली==============
व्यक्त खुजली,- के अंतर्गत वो खुजली आती है जो सामान्य रूप से दृष्टिगोचर हो जाए,इस तरह की खुजली कोई भी कही भी कभी भी खुजा सकता है,जैसे शरीर के किसी भी अंग को खुजाते हुए,दैनिक क्रिया कलापों के बीच में हम और आप एक दुसरे को देख सकते है,
अव्यक्त खुजली
:- इसके अंतर्गत जो दृष्टिगत ना हो कर हमारे व्यवहार से जाहिर होती हो, जैसे जबान की खुजली... खुजली हर जीवित प्राणी को कभी कभी होती ही है,यूँ तो खुजली मात्र तीन अक्षरों के मेल से बना अझेल शब्द है,खुजली शब्द स्त्रीलिंग है, इसका संधिविछेद करने पर खून+जली प्राप्त होता है जिसका सामान्य सा अर्थ है खून जलाने वाली,लोकमत के अनुसार प्रायः ये गंदगी से उत्पन्न होती है,पर व्यक्तिगत मेरे विचार से खुजली का गंदगी या सफाई से कोई लेना देना नही है,मैंने संत महात्माओं को प्रवचन करते समय नाक्,कान,गला,मस्तक अदि खुजाते हुए देखा है,खुजली से सम्बंधित स्वयं का अनुभव शब्दों के माध्यम से आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ,-----------------------------------------------------------------------------------------
                                भाग १

अपने आप में एक विचित्र अनुभव है,अनोखा अहसास है,
स्वयं संवेदना का व्यक्तिगत आभास है,
इसलिए करता हूँ आपको खबरदार बाखबर, 
कर रहा था मै ट्रेन का सफर, 
तीन दिनों का झंझावात,कब गुज़रे दिन कब आई रात,
कभी जोर कभी धीरे से ट्रेन का हिलना,
पुरानी पटरियों से नई पटरियों का मिलना,
अलसाई आँखों में कल्पनाओं का जोर,
कानो में गूंजता इंजन का शोर,
चाँद रात थी उजली उजली
अचानक महसूस हुई पाँव में खुजली,
आँखों में नींद मन अलसाया,
अपने दूसरे पाँव से खुजली को सहलाया,
पर खुजली बन गई थी कॉग्रेस आई,
बढ़ती गई जैसे महंगाई,
हाँथ से खुजाने की हिम्मत नही पड़ रही थी,
और खुजली द्रोपदी के चीर की तरह बढ़ रही थी,
कई बार मोबाइल पर खोजा पैर ऊपर नीचे समेटे,
कमबख्त मोबाइल वाले भी कोई आप्शन खुजाने का नही देते,
सारी जुगत फेल हो रही थी,खुजली अझेल हो रही थी,
अंत में हमें ही पड़ा उठना,तिकोना किया घुटना,
दाहिने हाँथ की शुभता रखते हुए मद्देनज़र,
तर्जनी उंगली के नाखून की धार की प्रखर,
बिना हानिलाभ सोंचे किया नाखून का प्रयोग,
शायद शनि के साथ राहू का था कालसर्प योग,
मिटा खुजली पैर की, की परम शान्ति प्राप्त,
बैग का तकिया बना और निद्रा हो गई व्याप्त,                              
                                            भाग
..
भोर
की पहली किरण, नींद मेरी हुई हिरन,
कानपुर की धरा को,हाँथ जोड़े कर नमन,
अपने घर का प्यार पा कर मन प्रफुल्लित हो गया,
यात्रा का शब्द अर्थ विष बीज दाना बो गया,
मै तो गंजा था ही मेरा लाल पंजा हो गया,
सोंचते ही सोंचते मष्तिष्क् मंझा हो गया,
नित दायरा अपना बढाता था वो भ्रष्टाचार सा,
बीत वासर सब रहे औषधि बदलते यार सा,
ये चिकित्सक वो चिकित्सक सब चिकित्सक गए,
कारबंकल,पीलपांव,अन्धामुखी बतला गए,
फोड़ा बना घोडा और मै डंकी के जैसा हो गया,
मै तो जो था सब सही मेरा पुत्र मंकी हो गया 
घर के सारे काम भी जिम्मे पे उसके गए,
आगे की औपचारिकता सभी नेता उसे बतला गए,
संस्कारों की वजह से आज वो लट्टू बना,
भागता फिरता था वो धोबी का टट्टू बना,
राजकीय नियमावली से अभी अनजान था,
उम्र चौदह साल थी समझो कि वो नादान था,
मै पड़ा था खाट पर बन के भ्रष्टाचार सा,
देखा करूँ मै मौन सब गांधी पे चढ़ते हार सा,
बेइज्जती सी पैर की सब चीराफाडी हो गई,
अर्थ स्थिति घर की जैसे बैलगाडी हो गई,
लोकतंत्री पैर की सब लोकपाली हो गई,
सरकार के नियमों के कारन जेब खाली हो गई,
शर्म सी आने लगी थी खुद को अपने नाम पे,
कर के हिम्मत एक दिन मै चल पड़ा फिर काम पे,
मित्र अधिकारी सभी के हमदर्दी जताते,
बीतता था दिन चिकित्सीय औपचारिकता निभाते,
नेता थे कन्नी काटते विपदा ना सुनता था कोई,
टूटी थी कोई चीज़ सीने में, मेरी नैतिकता रोई,
खुद में साहस भर के निकला फिर मै सीना तान के,
भ्रष्ट सिस्टम से लडूंगा मन में ऐसा ठान के.....
भ्रष्ट सिस्टम से लडूंगा मन में ऐसा ठान के.....<br>