बुधवार, 21 नवंबर 2012

मच्छरों का पे कमीशन

दस वर्षों के पश्चात पे कमीशन फिर आ गया ,
निर्माणी के कामगारों से ज्यादा मच्छरों को भा गया..
कल रात अनुभाग में में बैठे मै सुन रहा था ,
एक मच्छर अपनी पत्नी से कह रहा था ,
"अरी भागवान  अब दिन बदल जाएंगे अपने ,
कभी देखा करते थे हम खालिस खून के सपने ,
अब सारे ख्वाब पूरे हो जाएँगे ,
मजदूर से लेकर महाप्रबंधक के खून की दावत हम उड़ाएँगे ,
पहले हम मजदूरों का खून पीते थे ,
कैसे घिसट घिसट कर जीते थे ,
मजदूरों के खून से आती थी रोटी प्याज की महक ,
जिसको पीते ही सीना जाता था दहक
आफिसरों की दया से मर मर कर जी रहे थे ,
जान पर खेल कर अधिकारियों का खून पी रहे थे ,
पर अब नहीं उठाना पड़ेगा ज्यादा खतरा ,
डंक घुसा कर निकाल लेंगे खून का एक एक कतरा ,
जब वेतन आयोग की खुशी में हो जाएँगे सब चूर ,
जश्न मनाएंगे दारू पियेंगे भरपूर ,
तब आधी रात में हम अपना काम दिखाएँगे ,
नशे में मदहोश पड़े लोगों के तन में अपना डंक चुभाएंगे ,
न कोई दर ना कोई आफत ,
खून के साथ साथ चलेगी दारू की दावत ,"

मच्छर की बातों ने मेरे  स्वाभिमान को जगा दिया ,
मैंने कछुआ छाप अगरबत्ती जला कर मच्छरों को भगा दिया ,
ये जान कर हुई ह्रदय में बहुत ही पीड़ा ,
कि मच्छर भी समझते है इंसानों को दारू का कीड़ा ...

शनिवार, 10 नवंबर 2012

भाग्य

भाग्य पकड़ कर बैठा था मै,
कर्म थकन से चूर हो गया,
श्रम को रोते देख सडक पर,
हँसने को मजबूर हो गया,
मैं मानव हूँ मै सब कुछ हूँ ,
कैसा ये गुरूर हो गया,
शायद सुख का नशा चढ़ा है,
इसीलिये मशहूर हो गया,
अपनो ने चाहा कुछ ऐसे,
नज़रों का मै नूर हो गया,
है बला कौन सी प्रेम ना जानूं,
आशिक फिर भी जरूर हो गया,
लगी लगन कुछ ऐसी तुमसे,
लिखने का कुछ शउर हो गया,
पीने का मन नही आज पर,
शाम जाम का दौर हो गया,
कली कली में अक्स तुम्हारा,
सारा आलम हूर हो गया,
मै क्या जानूँ तुम कैसी हो,
मिलन का सपना चूर हो गया।

बुधवार, 7 नवंबर 2012

सजन का गाँव..



  • ले चल सजन उस गावं में

    जहाँ सत्य की खुशबू आती हो,
    कोकिल पंचम स्वर मे गाती हो,
    अल्हणता मदमाती हो,
    जहाँ दादी गीत सुनाती हो,
    कली कली मुस्काती  हो,
    जहाँ माखन दूध मलाई हो,
    अम्बुआ की अमराई हो,

    बैठें नीम की ठण्डी छाँव में,
    ले चल सजन उस गाँव में,

    दिलों मे राग पनपते हो,
    सपने नयनों में पकते हो,
    जहाँ मिट्टी वाले कुल्हण हों,
    चौपाल मे जिसकी हुल्लण हो,
    जहाँ गउव्वें धूल उड़ाती हों,
    जहाँ बुलबुल चोंच लड़ाती हो,

    जहाँ शान लगी हो दाँव में,
    ले चल सजन उस गाँव में,

    जहाँ बातों की फुलझड़िया हों ,
    जहाँ दाल मुंगौड़े बड़ियाँ हों,
    इच्छाएँ भी छोटी हों
    मक्के की सोंधी रोटी हो,
    जहाँ साग हरी सरसों का हो,
    सामान ना सौ बरसों का हो,

    पायल पहना कर पाँव में
    ले चल सजन उस गाँव में,

    जहाँ चूल्हा चक्की आंटा हो,
    जहाँ चिमटा चौकी पाटा हो,
    जहाँ मस्जिद संग शिवाला हो,
    अजान भजन स्वर माला हो,
    बिखरी स्वछंद हवाएं हों,
    माँ,पिता की संग दुवाएं हों,

    पीड़ा सब जलें अलाव में,
    ले चल सजन उस गाँव में।
  • रविवार, 4 नवंबर 2012

    घोड़ा गाड़ी

    पुतऊ बोले एक दिना,
    बप्पा हम लेबे गाड़ी,
    साइकिलौ खचड़िया होइ गै है,
    अब लेबै हम इंजन वाली,
    हम बोलेन गाड़ी का करिहौ,
    मँहगाई ससुर बहुत बाढ़ी,
    एकु घोड़ा तुमका लई देबे,
    गाड़ी तौ जंग लगी ठाढ़ी,
    पेट्रोल मा आगी लागि रही,
    डीजल कऱू तेल होइगा,
    गैसौ भभकि रही द्याखौ,
    मिट्टी क तेलु तिली होइगा,
    खुब समुझावा हाँथ जोरि,
    तब छाँड़ेन उई अपने मन कै,
    फिरि घोड़ा हमहूँ लई आएन,
    अम्बेसडर कार जइस चमकै,
    जब देखेन उई घोड़ा कइती,
    तौ सिब्बल जइस खुबै भड़के,
    हम पूँछि रहेन यो कइस लाग,
    उइ मौन सुरन मा सब कहिगे,
    अब गाँव भरे मा बम बम होइ गै,
    पाहुन होइ आये संतोषा नंद(गधा ),
    एकु घोड़ा लावै गए रहएं ,
    लै आए गदहा मूरख चंद,
    ना लेबे गाड़ी लरिकउ कहेन,
    अम्मौ आँखी खुब लाल कियेन,
    हम देस के मुखिया जइस गुरू,
    बस मंद मंद मुस्कात रहेन।

    शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

    ललक.............

    दो नन्ही गौरैयों ने देख
    लिया अम्बर ज्यों ही,
    जिज्ञासा की डोर बंधी,
    उड़ चलीं गगन के पार कहीं,
    लिखने जीवन की नई कहानी,
    क्षितिज पार जाने की ठानी,
    गीत बहारों का गाती वो,
    पंख हिलाते फड़काती वो,
    नीड़ रेशमी छोड़ दिया फिर,
    कौंधी बिजली आइ घटा घिर,
    पर उल्लास ह्रदय भर अपने,
    चलीं ख्वाब सब पूरे करने,
    नैनों में आशा के कण थे,
    यही ज़िंदगी के वो क्षण थे,
    कलियों ने मौसम तौला था,
    खुशबू से तन मन डोला था,
    लेकिन विधिना की पाती मे,
    छिपा ना जाने क्या माटी में,
    दूर बहुत ही देर तलक,
    उड़ती जाती बढ़ती थी ललक,
    अब थकन से दोनो चूर हुई,
    अपनों से भी वो दूर हुई,
    दिन कटते थे अलग अलग,
    रातें कटती थी बिलख बिलख,
    पर सपने उनके चुके ना थे,
    इसलिये कदम भी रुके ना थे,
    हर रोज़ नया आयाम लिये,
    आती थी भोर पयाम लिये,
    लेकिन यादें तड़पाती थी,
    हंसते रोते आ जाती थीं,
    अब सही ना जाती थी दूरी,
    घर में सब इच्छा  हो पूरी,
    ये ठान लिया भीतर मन के,
    बज उठे राग सब जीवन के,
    उड़ चली व्योम भर पंखों में,
    ध्वनि मचल उठी सब शंखों में,
    सनन सनन गति बढ़ती थी,
    आगे बढ़ने को लड़ती थी,
    दोनों ने नज़रें दौड़ाई,
    दिख गई नीड़ की परछाईं,
    लिपट गईं मन प्यार भरे,
    खूब नैनों से उद्गार झरे,
    वृक्ष भी हर्षित डोल उठे,
    बागों के भंवरे बोल उठे,
    मत करना फिर से नादानी,
    अब करो खतम तुम मनमानी।