रविवार, 29 जुलाई 2012

प्रेमद्वंद


करती रात विश्वासघात,
नित कर देती नव प्रभात,

विचार रेत सा झर जाते है,
दिल कतरा कतरा कर जाते है,
कुण्ठित मन के सारे कोने,
विष कणिका से भर जाते है,
लगता नही सुखद अब मुझको,
  तेरा हर एकाकी साथ,

करती रात विश्वास घात,
कर देती नित नव प्रभात,

सूना तनमन खाली सा,
ह्रदय बना है जाली सा,
प्यार की बूदें छन्न से हो,
उड़ जाती आग की लाली सा,
रह जाती है पास हमारे,
ठोकर खाने वाली बात,

करती रात विश्वास घात,
कर देती नित नव प्रभात,



प्रेम रात में रत होता है,
तुमसे मोह विकट होता है,
सुर्ख लाल भानु मुखमंडल,
दीप्त प्रतीत द्रश्य होता है,
लहराता जब भोर का परचम,
लगता जैसे ह्रदय घात,

करती रात विश्वास घात,
कर देती नित नव प्रभात,









शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

अस्तित्व


 तुमको पास ना देख दूरी का अहसास हुआ,
 भले ही ह्रदय मे रुधिर की तरह उपस्थित हो,
 पर श्वेत कणिकाएँ कुछ कम हो चली हैं,
 यादों का सिलसिला श्वांस की तरह हो गया है,
 हाँ जब बिजली नहीं आती,
 तब तुम्हारे पास ना होने का अहसास दम घोटता हुआ सा लगता है,
 अधेरे मे तुम नज़र आने लगती हो कल्पनाओं मे,
 और मै ढ़ेर सारी बातें कर जाता हूँ तुमसे,
 वास्तव मे मुझे पता होता है कि तुम नही हो,
 अंधेरा कर गई रोशनी की तरह,
 लेकिन तुम्हारी अंधेरे की सौगात मुझे पसंद है,
 मुझे पता है ये भी कि जब तुम आओगी तो रोशनी आयेगी मेरे कमरे में,
जब तुम आओगी तो ज़मीन आवाज़ देगी, तुम्हारे आने की,
जब तुम आओगी तो चंदन की महक भी आयेगी तुम्हारे साथ,
जब तुम आओगी तो मेरा जीवन  भी अस्तित्व मे आयेगा,

 अरे..अस्तित्व हीन जीवन!!!!!!!!!

क्या गज़ब का परिहास है,
चलो कुछ तो है परिहास ही सही,
पर है तो सही जीवन बिना अस्तित्व के भी,
क्यों कि,मेरा अस्तित्व तो तुम्ही हो,
क्यों कि, मेरा अस्तित्व तो तुम्ही हो.....


                                                              राजेंद्र अवस्थी (कांड )

नतमस्तक



नतमस्तक हूँ आज समय के सामने,
श्रम का प्रतिदान चाबुक की फटकार,
जिम्मेदारियों का बोझ लादे ,
चला आया बचपन को झिड़कते हुए,
तानों, दुराग्रहों , समाज की,
बेंड़िया पहने मनाता रहा त्योहार,
बोझ कभी भारी ना लगा,
 पर आज समय ने नतमस्तक कर दिया,
स्वाभिमान भी दलदली हो गया है अब,
सूखे ठूंठ सा ज्ञान बाँकी है,
जो जीवन और मृत्यु के फर्क को जताता है,
साथ ही ये भी बताता है कि, 
सिर्फ ठूँठ बचा है.........
.सिर्फ ठूँठ बचा है..
                                                                     
                       
                                                                     राजेन्द्र अवस्थी (काण्ड)ै

रविवार, 8 जुलाई 2012

चिड़िया

आज एक चिड़िया अपनी चोंच में एक कतरा धूप भर कर मेरे कमरे मे डाल गई,
मुझे हिकारत से देखा और, कुछ जलते हुआ प्रश्न उछाल गई,
क्या ए.सी.मे रहने वालो को गर्मी नही लगती,
प्यास से सूखते गले मे सुइयां नही चुभतीं,
कब तक और कितने तरीकों से बचाओगे अपने अस्तित्व को,
कैसे कैसे महान बनाओगे खुद के व्यक्तित्व को,
ठण्डी हवायें कब तक रहेंगी आस पास,
कब तक ना लगेगी तुमको प्यास,
खेत,खलिहान,तालाब,पोखर,बाग,
नेह,मेह,सम्वेदना,संगीत,राग,
बना दो सब को बोनसाई, 
इसांन बना ईश्वर ये आवाज़ चिड़िया ने लगाई,
रहो अपने स्वार्थ और लालच के संसार में,
इस एक कतरा धूप को भी बेंच दो बाजार में,
जाते जाते ए.सी.का ठण्डापन, मेरी सोंचों मे भर गई,
और वो एक कतरा धूप अपनी चोंच से मेरे कमरे में धर गई...

बदली में ,

चाँद आज छुप गया था बदली में ,

अठखेलियाँ थी खूब जारी,
बदलियों के दिल भारी,
छुप छुप के आता था,
चाँद मन चुराता था,
बदली को नचाता चाँद उंगली में,
चाँद आज छुप गया था बदली में,

बदलियाँ बैरागी थीं,
प्रेम अगन लागी थी,
बदलियों का अकुलाना,
बैरी चाँद छुप जाना,
हो गई अमावस रात उजली में,
चाँद आज छुप गया था बदली मे,

चाँद ने बहुत रोका,
बदलियों को था टोंका,
है चाँदनी प्रिया मेरी,
संगिनी सदा चेरी,
मन हारा चाँद चाँदनी सी पगली में,
चाँद आज छुप गया था बदली में




गिला

कितना सारा गिला,
इंतज़ार बिजली के आने का,
संशय सवेरे ना उठ पाने का,
गैस का खतम होता सिलेंडर,
अन्ना के सामने कांग्रेस का डिफेंडर,
साल की सबसे अधिक ठंडी रात,
गुज़ार दी तनहा तुम्हारी यादों के साथ,
यादें बता देती है उम्र का तकाजा,
साँसों से कहता है प्राण,अभी ना जा,
जीवन भर साथ चलते है शिकवे गिले,
जैसे कल रात ख़्वाब में तुम मुझे नही मिले,
पर कैसे कहूँ नज़रों के सामने थे तुम,
राह भटकी जब कोई मुझे थामते थे तुम,
माह गुज़रे साल गुज़रे गिले बांकी रह गए,
ख़्वाबों में यादों में मौन ही सब कुछ तुम कह गए,
अब शेष हूँ मै, तुम्हारे ख़्वाब, तुम्हारी याद,
वो जगह, जहां पहली बार, तुमसे मिला,
और कुछ शेष है, तो वो है सिर्फ गिला, सिर्फ गिला,सिर्फ गिला......

शनिवार, 7 जुलाई 2012

खुजली

खुजली, क्या है? इस प्रश्न का उत्तर शायद सभी को मालूम है कि,जब भी प्राणी मात्र के तन पर या मन पर,
किसी
अनचाही छुअन का अनुभव होता है चाहे वो भ्रम वश हो या जानबूझ कर हो,
उस
छुअन के आभास को हाँथ से सहला कर या नाखूनों के माध्यम से खरोंच कर मानसिक संतुष्टि  प्राप्त कर,जिस शारीरिक और मानसिक पीड़ा को शांत किया जाता है , उसको खुजली कहते है,प्राचीनकाल से खुजली की दो जातियों के होने का प्रमाण शिला लेखो के माध्यम से प्राप्त होता है,
- व्यक्त खुजली २- अव्यक्त खुजली==============
व्यक्त खुजली,- के अंतर्गत वो खुजली आती है जो सामान्य रूप से दृष्टिगोचर हो जाए,इस तरह की खुजली कोई भी कही भी कभी भी खुजा सकता है,जैसे शरीर के किसी भी अंग को खुजाते हुए,दैनिक क्रिया कलापों के बीच में हम और आप एक दुसरे को देख सकते है,
अव्यक्त खुजली
:- इसके अंतर्गत जो दृष्टिगत ना हो कर हमारे व्यवहार से जाहिर होती हो, जैसे जबान की खुजली... खुजली हर जीवित प्राणी को कभी कभी होती ही है,यूँ तो खुजली मात्र तीन अक्षरों के मेल से बना अझेल शब्द है,खुजली शब्द स्त्रीलिंग है, इसका संधिविछेद करने पर खून+जली प्राप्त होता है जिसका सामान्य सा अर्थ है खून जलाने वाली,लोकमत के अनुसार प्रायः ये गंदगी से उत्पन्न होती है,पर व्यक्तिगत मेरे विचार से खुजली का गंदगी या सफाई से कोई लेना देना नही है,मैंने संत महात्माओं को प्रवचन करते समय नाक्,कान,गला,मस्तक अदि खुजाते हुए देखा है,खुजली से सम्बंधित स्वयं का अनुभव शब्दों के माध्यम से आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ,-----------------------------------------------------------------------------------------
                                भाग १

अपने आप में एक विचित्र अनुभव है,अनोखा अहसास है,
स्वयं संवेदना का व्यक्तिगत आभास है,
इसलिए करता हूँ आपको खबरदार बाखबर, 
कर रहा था मै ट्रेन का सफर, 
तीन दिनों का झंझावात,कब गुज़रे दिन कब आई रात,
कभी जोर कभी धीरे से ट्रेन का हिलना,
पुरानी पटरियों से नई पटरियों का मिलना,
अलसाई आँखों में कल्पनाओं का जोर,
कानो में गूंजता इंजन का शोर,
चाँद रात थी उजली उजली
अचानक महसूस हुई पाँव में खुजली,
आँखों में नींद मन अलसाया,
अपने दूसरे पाँव से खुजली को सहलाया,
पर खुजली बन गई थी कॉग्रेस आई,
बढ़ती गई जैसे महंगाई,
हाँथ से खुजाने की हिम्मत नही पड़ रही थी,
और खुजली द्रोपदी के चीर की तरह बढ़ रही थी,
कई बार मोबाइल पर खोजा पैर ऊपर नीचे समेटे,
कमबख्त मोबाइल वाले भी कोई आप्शन खुजाने का नही देते,
सारी जुगत फेल हो रही थी,खुजली अझेल हो रही थी,
अंत में हमें ही पड़ा उठना,तिकोना किया घुटना,
दाहिने हाँथ की शुभता रखते हुए मद्देनज़र,
तर्जनी उंगली के नाखून की धार की प्रखर,
बिना हानिलाभ सोंचे किया नाखून का प्रयोग,
शायद शनि के साथ राहू का था कालसर्प योग,
मिटा खुजली पैर की, की परम शान्ति प्राप्त,
बैग का तकिया बना और निद्रा हो गई व्याप्त,                              
                                            भाग
..
भोर
की पहली किरण, नींद मेरी हुई हिरन,
कानपुर की धरा को,हाँथ जोड़े कर नमन,
अपने घर का प्यार पा कर मन प्रफुल्लित हो गया,
यात्रा का शब्द अर्थ विष बीज दाना बो गया,
मै तो गंजा था ही मेरा लाल पंजा हो गया,
सोंचते ही सोंचते मष्तिष्क् मंझा हो गया,
नित दायरा अपना बढाता था वो भ्रष्टाचार सा,
बीत वासर सब रहे औषधि बदलते यार सा,
ये चिकित्सक वो चिकित्सक सब चिकित्सक गए,
कारबंकल,पीलपांव,अन्धामुखी बतला गए,
फोड़ा बना घोडा और मै डंकी के जैसा हो गया,
मै तो जो था सब सही मेरा पुत्र मंकी हो गया 
घर के सारे काम भी जिम्मे पे उसके गए,
आगे की औपचारिकता सभी नेता उसे बतला गए,
संस्कारों की वजह से आज वो लट्टू बना,
भागता फिरता था वो धोबी का टट्टू बना,
राजकीय नियमावली से अभी अनजान था,
उम्र चौदह साल थी समझो कि वो नादान था,
मै पड़ा था खाट पर बन के भ्रष्टाचार सा,
देखा करूँ मै मौन सब गांधी पे चढ़ते हार सा,
बेइज्जती सी पैर की सब चीराफाडी हो गई,
अर्थ स्थिति घर की जैसे बैलगाडी हो गई,
लोकतंत्री पैर की सब लोकपाली हो गई,
सरकार के नियमों के कारन जेब खाली हो गई,
शर्म सी आने लगी थी खुद को अपने नाम पे,
कर के हिम्मत एक दिन मै चल पड़ा फिर काम पे,
मित्र अधिकारी सभी के हमदर्दी जताते,
बीतता था दिन चिकित्सीय औपचारिकता निभाते,
नेता थे कन्नी काटते विपदा ना सुनता था कोई,
टूटी थी कोई चीज़ सीने में, मेरी नैतिकता रोई,
खुद में साहस भर के निकला फिर मै सीना तान के,
भ्रष्ट सिस्टम से लडूंगा मन में ऐसा ठान के.....
भ्रष्ट सिस्टम से लडूंगा मन में ऐसा ठान के.....<br>