बुधवार, 21 नवंबर 2012

मच्छरों का पे कमीशन

दस वर्षों के पश्चात पे कमीशन फिर आ गया ,
निर्माणी के कामगारों से ज्यादा मच्छरों को भा गया..
कल रात अनुभाग में में बैठे मै सुन रहा था ,
एक मच्छर अपनी पत्नी से कह रहा था ,
"अरी भागवान  अब दिन बदल जाएंगे अपने ,
कभी देखा करते थे हम खालिस खून के सपने ,
अब सारे ख्वाब पूरे हो जाएँगे ,
मजदूर से लेकर महाप्रबंधक के खून की दावत हम उड़ाएँगे ,
पहले हम मजदूरों का खून पीते थे ,
कैसे घिसट घिसट कर जीते थे ,
मजदूरों के खून से आती थी रोटी प्याज की महक ,
जिसको पीते ही सीना जाता था दहक
आफिसरों की दया से मर मर कर जी रहे थे ,
जान पर खेल कर अधिकारियों का खून पी रहे थे ,
पर अब नहीं उठाना पड़ेगा ज्यादा खतरा ,
डंक घुसा कर निकाल लेंगे खून का एक एक कतरा ,
जब वेतन आयोग की खुशी में हो जाएँगे सब चूर ,
जश्न मनाएंगे दारू पियेंगे भरपूर ,
तब आधी रात में हम अपना काम दिखाएँगे ,
नशे में मदहोश पड़े लोगों के तन में अपना डंक चुभाएंगे ,
न कोई दर ना कोई आफत ,
खून के साथ साथ चलेगी दारू की दावत ,"

मच्छर की बातों ने मेरे  स्वाभिमान को जगा दिया ,
मैंने कछुआ छाप अगरबत्ती जला कर मच्छरों को भगा दिया ,
ये जान कर हुई ह्रदय में बहुत ही पीड़ा ,
कि मच्छर भी समझते है इंसानों को दारू का कीड़ा ...

शनिवार, 10 नवंबर 2012

भाग्य

भाग्य पकड़ कर बैठा था मै,
कर्म थकन से चूर हो गया,
श्रम को रोते देख सडक पर,
हँसने को मजबूर हो गया,
मैं मानव हूँ मै सब कुछ हूँ ,
कैसा ये गुरूर हो गया,
शायद सुख का नशा चढ़ा है,
इसीलिये मशहूर हो गया,
अपनो ने चाहा कुछ ऐसे,
नज़रों का मै नूर हो गया,
है बला कौन सी प्रेम ना जानूं,
आशिक फिर भी जरूर हो गया,
लगी लगन कुछ ऐसी तुमसे,
लिखने का कुछ शउर हो गया,
पीने का मन नही आज पर,
शाम जाम का दौर हो गया,
कली कली में अक्स तुम्हारा,
सारा आलम हूर हो गया,
मै क्या जानूँ तुम कैसी हो,
मिलन का सपना चूर हो गया।

बुधवार, 7 नवंबर 2012

सजन का गाँव..



  • ले चल सजन उस गावं में

    जहाँ सत्य की खुशबू आती हो,
    कोकिल पंचम स्वर मे गाती हो,
    अल्हणता मदमाती हो,
    जहाँ दादी गीत सुनाती हो,
    कली कली मुस्काती  हो,
    जहाँ माखन दूध मलाई हो,
    अम्बुआ की अमराई हो,

    बैठें नीम की ठण्डी छाँव में,
    ले चल सजन उस गाँव में,

    दिलों मे राग पनपते हो,
    सपने नयनों में पकते हो,
    जहाँ मिट्टी वाले कुल्हण हों,
    चौपाल मे जिसकी हुल्लण हो,
    जहाँ गउव्वें धूल उड़ाती हों,
    जहाँ बुलबुल चोंच लड़ाती हो,

    जहाँ शान लगी हो दाँव में,
    ले चल सजन उस गाँव में,

    जहाँ बातों की फुलझड़िया हों ,
    जहाँ दाल मुंगौड़े बड़ियाँ हों,
    इच्छाएँ भी छोटी हों
    मक्के की सोंधी रोटी हो,
    जहाँ साग हरी सरसों का हो,
    सामान ना सौ बरसों का हो,

    पायल पहना कर पाँव में
    ले चल सजन उस गाँव में,

    जहाँ चूल्हा चक्की आंटा हो,
    जहाँ चिमटा चौकी पाटा हो,
    जहाँ मस्जिद संग शिवाला हो,
    अजान भजन स्वर माला हो,
    बिखरी स्वछंद हवाएं हों,
    माँ,पिता की संग दुवाएं हों,

    पीड़ा सब जलें अलाव में,
    ले चल सजन उस गाँव में।
  • रविवार, 4 नवंबर 2012

    घोड़ा गाड़ी

    पुतऊ बोले एक दिना,
    बप्पा हम लेबे गाड़ी,
    साइकिलौ खचड़िया होइ गै है,
    अब लेबै हम इंजन वाली,
    हम बोलेन गाड़ी का करिहौ,
    मँहगाई ससुर बहुत बाढ़ी,
    एकु घोड़ा तुमका लई देबे,
    गाड़ी तौ जंग लगी ठाढ़ी,
    पेट्रोल मा आगी लागि रही,
    डीजल कऱू तेल होइगा,
    गैसौ भभकि रही द्याखौ,
    मिट्टी क तेलु तिली होइगा,
    खुब समुझावा हाँथ जोरि,
    तब छाँड़ेन उई अपने मन कै,
    फिरि घोड़ा हमहूँ लई आएन,
    अम्बेसडर कार जइस चमकै,
    जब देखेन उई घोड़ा कइती,
    तौ सिब्बल जइस खुबै भड़के,
    हम पूँछि रहेन यो कइस लाग,
    उइ मौन सुरन मा सब कहिगे,
    अब गाँव भरे मा बम बम होइ गै,
    पाहुन होइ आये संतोषा नंद(गधा ),
    एकु घोड़ा लावै गए रहएं ,
    लै आए गदहा मूरख चंद,
    ना लेबे गाड़ी लरिकउ कहेन,
    अम्मौ आँखी खुब लाल कियेन,
    हम देस के मुखिया जइस गुरू,
    बस मंद मंद मुस्कात रहेन।

    शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

    ललक.............

    दो नन्ही गौरैयों ने देख
    लिया अम्बर ज्यों ही,
    जिज्ञासा की डोर बंधी,
    उड़ चलीं गगन के पार कहीं,
    लिखने जीवन की नई कहानी,
    क्षितिज पार जाने की ठानी,
    गीत बहारों का गाती वो,
    पंख हिलाते फड़काती वो,
    नीड़ रेशमी छोड़ दिया फिर,
    कौंधी बिजली आइ घटा घिर,
    पर उल्लास ह्रदय भर अपने,
    चलीं ख्वाब सब पूरे करने,
    नैनों में आशा के कण थे,
    यही ज़िंदगी के वो क्षण थे,
    कलियों ने मौसम तौला था,
    खुशबू से तन मन डोला था,
    लेकिन विधिना की पाती मे,
    छिपा ना जाने क्या माटी में,
    दूर बहुत ही देर तलक,
    उड़ती जाती बढ़ती थी ललक,
    अब थकन से दोनो चूर हुई,
    अपनों से भी वो दूर हुई,
    दिन कटते थे अलग अलग,
    रातें कटती थी बिलख बिलख,
    पर सपने उनके चुके ना थे,
    इसलिये कदम भी रुके ना थे,
    हर रोज़ नया आयाम लिये,
    आती थी भोर पयाम लिये,
    लेकिन यादें तड़पाती थी,
    हंसते रोते आ जाती थीं,
    अब सही ना जाती थी दूरी,
    घर में सब इच्छा  हो पूरी,
    ये ठान लिया भीतर मन के,
    बज उठे राग सब जीवन के,
    उड़ चली व्योम भर पंखों में,
    ध्वनि मचल उठी सब शंखों में,
    सनन सनन गति बढ़ती थी,
    आगे बढ़ने को लड़ती थी,
    दोनों ने नज़रें दौड़ाई,
    दिख गई नीड़ की परछाईं,
    लिपट गईं मन प्यार भरे,
    खूब नैनों से उद्गार झरे,
    वृक्ष भी हर्षित डोल उठे,
    बागों के भंवरे बोल उठे,
    मत करना फिर से नादानी,
    अब करो खतम तुम मनमानी।

    शनिवार, 27 अक्तूबर 2012

    साली बरखा की फुहार



    प्रभु गोरी दो या काली दो बस मुझको तुम एक साली दो,

    पत्नी एग्रिमेण्ट भले ही हो पर साली महिमा माया है,
    पत्नी धूप भरा जीवन पथ साली सावन छाया है,
    पत्नी साथ भले ही हो पर घर सूना सा लगता है,
    साली यदि हो पास कभी तो सब दूना सा लगता है,
    मुझे मक्खन खीर मलाई की ना भरी हुई तुम थाली दो,

    प्रभु गोरी दो या काली दो...........

    पत्नी घर का काम काज और चूल्हा चौका बर्तन है,
    साली वर्षों की मेहनत का क्षणिक ह्रदय परिवर्तन है,
    पत्नी नित दिनप्रतिदिन का बेजान पुराना कीर्तन है,
    और साली बरखा की फुहार में विद्युत जैसा नर्तन है,
    मेरी उजड़ी बगिया को फिर हरा करे वो माली दो,

    प्रभु गोरी दो या काली दो बस मुझको तुम एक साली दो,

    पत्नी का मै नौकर हूँ और साली पर मै रीझा हूँ,
    कुरूक्षेत्र के घमासान का प्रस्तुत स्वयं नतीजा हूँ,ं
    मुँह कड़वाहट से भर जाए मै सड़ा हुआ वो बीजा हूँ,
    रस विहीन जीवन जिसका वो बदनसीब मै जीजा हूँ,
    हे भगवन सीधी साधी दो या फिर कोई बवाली दो,

    प्रभु गोरी दो या काली दो बस मुझको तुम एक साली दो,

    पत्नी कैथे की चटनी और साली बेल मुरब्बा है,
    पत्नी सूखी मटर है साली चॉकलेट का डब्बा है,
    कूलर लगती घरवाली और साली ठण्डा एसी है,
    पत्नी देसी खादी है और साली वस्त्र विदेशी है,
    हे भगवन अब कृपा करो वरदान मुझे मत खाली दो,

    गोरी दो या काली दो बस मुझको तुम एक साली दो,

    मलाला

    तुम जीना और तुम्हे जीना भी चाहिये,
    गर मिला है विष उसे पीना भी चाहिये,
    थूंक दो समर्थन करने वालों के चेहरो पर,
    विस्फोट करो समाज औ संस्कृति के पहरों पर,
    हमदर्दी से सहलाते पीठ वाले हाँथो को,
    लच्छेदार मीठी चिकनी चुपड़ी बातों को,
    कर दो बेनकाब समाज के ओहदेदारों को,
    दे दो अब जहर मानवता के गद्दारों को,
    हम कोई बहस नही करेंगे तुम पर मलाला,
    फिर से इंसानियत का मुँह हुआ है काला,
    जियो बार बार जियो स्वाभिमान मरने मत,
    इंसानों की बस्ती में खुद को डरने मत देना,
    गवाही देता है इतिहास मानवता का,
    होता असफल हर प्रयास दानवता का,
    सदियों से नारी होती रही समर्पित,
    अब तुम खुद को मत करना अर्पित,
    सर उठा कर मारो गाल पर तमाचे,
    यदि फिर कोई नारी की अस्मिता को बाँचे,
    तुम्ही ने दिये थे बेशुमार अधिकार,
    अपना मालिक बना दिया हो निर्विकार,
    अभी और कितना सहोगी,
    कब तक चरणों की दासी रहोगी,
    छीन लो अपनी तेजस्विता को,
    गढ़ो फिर से अपनी मधुमिता को,
    अब चर्चा तुम पर ना हो कुछ ऐसा करो,
    मारो पाखण्डियों को पर तुम ना मरो।

    रविवार, 21 अक्तूबर 2012

    "विदेसी"गंगाजली देसी कमण्डल



    योह द्याखो भारत मा कइस खड़मण्डलु होइगा,
    "विदेसी"गंगाजली,देसी कमण्डलु होइगा,
    मंहगाई रूपी नीर बहाएन भारतु मां,
    औ सम्मान देसु का चौपट कीन्हेन स्वारथ मां,
    अरे यहु तौ अब बेसरम पौध डण्ठलु होइगा,
    योह द्याखौ भारत मा कइस.....
    मजबूरी का हरदम गाएस है योह गाना,
    चुप्पी साधे कुर्सी पर बइठा बलवाना,
    मारे पानी आँखिन का यो बण्डलु होइगा,
    योह द्याखौ भरतु मा कइस.......
    साशन औ अनुसासन का यो नाम डुबोएस,
    अकल मा एहिके पाथर परिगे इज्जत खोएस,
    धान का बोझा अस यो मूड़े का कण्डलु होइगा,
    योह द्याखौ भारतु मा कइस खड़मण्डलु होइगा।
    सोनचिरइय्या देसु का यो मरघटु कई दीन्हेस,
    देश के मुखिया की जबते यो पदवी लीन्हेस,
    कुटिल लीडरन का भारत अब जंगलु होइगा,
    योह द्याखौ भारत मा कइस खड़मण्डलु होइगा।

    गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

    पागल कवि

    क्या कवि पागल होता है,
    धरती से अम्बर तक जाना,
    शब्दों का अनमोल खजाना,
    बेढ़ंगी सोंचो को गढ़ना,
    निपट अकेला आगे बढ़ना,
    नूतन रोज फसल बोता है,
    क्या कवि पागल होता है?
    जीवन की आपाधापी को,
    पुन्य प्रतापी और पापी को,
    पतझर को मधुमास बनाता,
    एकाकी रंग रास रचाता,
    स्वर्णिम पल पल में खोता है,
    क्या कवि पागल होता है?
    नई दिशा दर्शन देता है,
    अतिशय दर्द प्रखर लेता है,
    मौन मनोभावों को सबके,
    चुन के शब्द मुखर देता है,
    संवेदित मन मीत बना कर,
    उर के अंदर ही रोता है,
    क्या कवि पागल होता है?
    विरह वेदना की ज्वाला को,
    प्रेम प्रीत की मधुशाला को,
    पीड़ा की कंटक माला को,
    अंतस की कड़वी हाला को,
    उद्गारों को भर प्यालों में,
    सुकरात के जैसे विष पीता है,
    क्या कवि पागल होता है?

    बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

    महंगू की बेटी



    कसमसाती परछाई से लटकते चीथड़े,
    झपट्टा मारते भेड़िये नोचते लोथड़े,
    कभी सिसकी कभी हिचकी कभी चीख,
    वो माँगती रही हाँथ जोड़ जोड़ दया की भीख,
    ना जाने किसकी किसकी देती रही दुहाई,
    शर्म भी शर्माई पर उनको लज्जा नहीं आई,
    पहले मोह्मद रसूल फिर राम फूल,
    नानक सिंह फिर गॉडस्टीन रिंग,
    होश खोती छाया,
    उसको कोई बचाने ना आया,
    चारों अपने धर्म और पुरुषार्थ का दे कर सबूत,
    चल दिये छाया को कर नेस्तनाबूद,
    कोहराम था सारे गाँव मे हर गली में,
    कमीनों को दया ना आई उस नन्ही सी कली मे,
    सरपंच ने पंचायत में किया फरमान जारी,
    छोड़ा ना जाएगा कार्यवाही होगी सरकारी,
    अचेत बिटिया मंहगू उठाता है,
    थाने मे दरोगा जी के पैरों मे लिटाता है,
    कहता है भर के आँखों मे नीर,
    हुजूर माई बाप मेरी हरो पीर,
    दरोगा जी ने प्यार से बिठाया,
    संविधान के हर नुक्ते को बखूबी समझाया,
    रुपये से इसका उपचार करवाओ,
    खुद रहो ठाठ से इसे शिक्षा दिलवाओ,
    मँहगू बोला, यदि आपकी बेटी होती,
    क्या सलाह तब भी यही होती,
    दरोगा का हाँथ गया बेंत पर,
    दहाड़ कर बोले-तू काम करने वाला खेत पर,
    हमसे जबान लड़ाता है,
    व्यर्थ में विवाद बढाता है,
    माना नहीं मंहगू दरोगा की बात,
    चला बड़े साहब को देने दरख्वास्त,
    गाँव से निकली खबर बिजली बन,
    छाया शहर पंहुची उजली बन,
    पत्रकारों मे होड़ मची हुआ खूब घमासान,
    छाया लाश जैसी मंहगू डोम गाँव मसान,
    टी.वी. पर चर्चा हुई खूब सुबहोशाम,
    अखबार की बिक्री बढ़ी सम्पादकों ने छलकाए जाम,
    पत्रकारों को आदेश था आग बढ़नी चाहिये,
    देश के बाँकी जिलों मे बिक्री बढ़नी चाहिये,
    नेता जी के बाद आया प्रगतिशील महिला मंच,
    गीत गाए स्वाभिमानी खूब हुआ प्रपंच,
    हो जाता आबाद रोज़ ही सघन चिकित्सा कक्ष,
    पूंछताँछ कर कहते मंहगू तुम भी रक्खो पक्ष,
    छाया सी छाया पड़ी अधर फटे पपड़ीदार,
    बालों सी उलझी ज़िंदगी पीड़ा से बेज़ार,
    रह रह कर वो चीखती माँगती दया की भीख,
    बस याद थी काली रात वो याद थी वो तारीख

    बुधवार, 12 सितंबर 2012

    अंगूर की बेटी


    बाहर बैठा अण्डा भुर्जी खीरा ककड़ी बेंच रहा हूँ,
    अब्बा जब पीते थे तब से देशी ठेका देख रहा हूँ,
    जश्न औ मातम रोज ही होते सड़क किनारे मैखाने पर,
    राजा हो चाहे रंक सभी का नाम लिखा दाने दाने पर,
    होती दावत रोज यहाँ पर भूंखे बच्चे सोते हैं,
    पिनक में दारू की सब हँसते और कभी सब रोते हैं,
    जाने कितने दुम्बे कटते रोज़ बगल मैखाने के,
    बोटी रोटी साथ छलकते जाम यहाँ पैमाने के,
    होती जूतम लात कभी चल जाती लाठी मस्तक पर,
    रुक जाती साँसे सबकी बस एक पुलिस की दस्तक पर,
    कोई चना चबेना लेता कोई अण्डा बिरयानी,
    कोई नमक चाट कर पीता पीता कोई बिना पानी,
    जमघट भक्त लगाते निश दिन लड़ते और झगड़ते,
    कोई आता कार से बाबू कोई पाँव रगड़ते,
    जेब मे तड़ ना होती और जब बोतल ना मिल पाती,
    सुविधा सबके लिये है ले लो सौ ग्राम मिल जाती,
    कोई चूस रहा शीशी को कोई खींच रहा है,
    कोई कड़वाहट के मारे आँखी मींच रहा है,
    घर मे रस्ता देख रही है पत्नी आस लगाए,
    पति महोदय ठेके मे है पैग पे पैग चढ़ाए,
    कोई गिरता धरती पर जब होता नशा गुलाबी,
    कोई गिरता नाली मे कहते सब लोग शराबी,
    बड़ी नशीली बड़ी रंगीली है अंगूर की बेटी,
    जाने कितने घरों की खुशियाँ इसने जड़ से मेटी,
    फिर भी यारों मजा ले रहे मित्र हमारे प्यारे,
    रोशन करते रोज नशेड़ी गलियाँ और चौबारे,
    मै भी कहता मजे उठा लो जीवन है दिन चार,
    मरना है सबको जब एक दिन अभी मरो तुम यार............

    बेमोल


    कविता आज फिर कैसे लिखूँ मै,

    दूर तुमसे हो गया हूँ,
    कल्पना ले सो गया हूँ,
    प्रेम की गीता से अब,
    तुम ही कहो क्या फिर सीखूं मै,


    कविता आज फिर कैसे लिखूँ मैं,

    पारदर्शी हो चुका अब,
    रंग बाँकी ना बचा अब,
    ग़म की झाँकी सा बना हूँ,
    कैसे ऋतु बसंती सा दिखूँ मै,

    कविता आज फिर कैसे लिखूँ मैं,

    तुम वहाँ हो हम यहाँ हैं,
    साथ गुज़रे पल कहाँ हैं ,
    मोल ना कुछ भावना का,
    बे मोल ही अब तो बिकूँ मै,

    कविता आज फिर कैसे लिखूँ मै।

    मंगलवार, 11 सितंबर 2012

    मंजिल



    जाते समय मुड़ के भी नही देखा तुमने,,
    चाहता था कि तुम मुड़ो,
    और मेरी ओर देख कर बॉय,
    जैसा कुछ कहो,
    लेकिन तुम पीछे कभी नही देखती,
    इसी लिये तुम हमसे आगे हो,
    मुझे अच्छा लगता है,
    तुम्हारा बढ़ना मंज़िल की ओर,
    ये कैसी पुरुष मानसिकता है मेरी,
    चाहती है पीछे मुड़ो,
    पसंद है आगे चलो मंज़िल की ओर,
    तुम्हारा विचार गतिवान है,
    और मेरी मानसिकता,
    द्वंद में जीता हूँ मै सदैव,
    क्यों कि, तुम कभी हारने नहीं देतीं,
    अच्छा किया तुम नहीं मुड़ीं,
    वरना मैं हर पल तुम्हारे साथ नहीं होता,

    रविवार, 9 सितंबर 2012

    संवेदना


    सर्दी की एक काँपती भोर,
    ठिठुरती छोटी सी बच्ची,
    नंगे पाँव, चिथड़ा फ्राक,उम्र कच्ची,
    उलझे गंदे कोमल बाल,
    गुज़ारे थे ज़िन्दा सात साल,
    आँखों मे चमक चाह पूर्ति की,
    मासूम संगेमरमर की मूर्ति सी,
     मरियम सा चेहरा लिये,
    सूखे पपड़ीदार होंट अपने सिंये,
    खड़ी थी नंगे पाँव सड़क पर,
    तभी एक इंसान बोला कड़क कर,
    साले माँग माँग कर माल खाते हैं,
    बच्चे पैदा करके सड़क पर डाल जाते हैं,
    बच्ची रही निर्विकार भावना हीन,
    मै बदकिस्मती से देख रहा था
    इंसानियत का सीन,
    धर्म भीरू समाज का कुरूप चेहरा,
    सम्वेदना हीन मानव
    हो चुका है बहरा,
    बना लिया स्वार्थ की परिधि चारो ओर,
    राम, अल्लाह,जीसस,
    पुकारता जोर जोर,
    पत्थरों को लगा कर गले,
    गलतियों की माला पहन कर चले,
    फिर भी देता नैतिकता की दुहाई
    थोड़ी ही देर बाद बच्ची चीखी चिल्लाई,
    सर्दी के कारण जोर से थरथराई,
    फिर गिर पड़ी भारतिय संस्कृति जैसी,
    सड़क पर पड़ी थी
    देश के नक्शे की आकृति जैसी,
    इंसानो की भीड़ ने घेरा चारो चरफ से,
    बच्ची के सर्वांग थे ठण्डे बरफ से,
    सीमाएं थी नक्शे के चारो ओर स्थापित,
    नज़रों से सब करते थे संदेश ज्ञापित,
    लोग इंसान थे विद्वान थे महान थे,
    शायद इसी लिये नादान थे,
    बच्ची का शव पड़ा था संविधान बन के,
    देश का स्वाभिमान पड़ा था बेजान बन के,

    गुरुवार, 6 सितंबर 2012

    जामुनी पुतलियाँ


    उल्लास गतिमान था,
    शाम सहज हो कर आई,
    ह्रदय का विचलन,
    सब समझ रहे थे,
    बचपन
    इंतज़ार कर रहा था,
    नाना के आने का,
    आ गये..
    राह मे ही,
    उनको उठा होगा,
    नेह का मीठा दर्द,
    लोटे मे रख लिये थे,
    उन्होने थोड़े से
    प्रेम के जामुन,
    बरामदे मे रक्खे सिलबट्टे पर,
    लोटे को उल्टा कर के धीरे से,
    जामुन रख दिये
    गहरी सांस के साथ,
    जैसे भार थे जामुन
    बृम्हाण्ड का,
    गोल जामुनों के साथ,
    नन्ही आँखो की पुतलियाँ भी जामुनी हो गईं,
    इंतज़ार अभी भी जारी है,
    जामुन प्रेम के है, प्रेम मे हैं,
    तो क्या,
    सफाई फिर भी होगी,
    जामुनों की कम
    अपने मन की ज्यादा,
    नन्ही आँखों मे पीलापन ना झलक जाए,
    जामुन को आत्मसात करने के बाद,
    व्यग्रता बढ़ी,और बढ़ी,
    सभी के साथ
    नाना की मुस्कान भी,
    अम्मा धुल रही हैं जामुन,
    बेचैनी नन्ही आँखों में जामुन बन गई,
    धुले हुए जामुन
    अम्मा का स्नेह,
    अब गुलाबी हँथेली अनुशासन तोड़ेगी,
    एक प्रेम की नीली गोली,
    नेह सी चमकती हई,
    अम्मा के वरदान जैसी,
    गुलाबी नन्ही हँथेली पर आने को है,
    कि, तभी माई ने डाँटा अभी नही,
    बस चाय गरम हो गई डाँट से,
    अम्मा की पुचकार,
    चाय पहले,
    बाद में प्यार,
    नन्हे पाँव धरा को दबाने लगे,
    धरा भी मुस्कराई,
    नानी के साथ,
    माई गंदी नही होती,
    तभी तो चाय गरम कर दी,
    अब फूंक से क्रोध शीतल करेगी,
    शीतल होगा सबका ह्रदय भी,
    उल्टी बाट के कटोरे से चाय पीना,
    समुद्र की अतल गहराई में होना है,
    गिलट का गिलास मामा के पास,
    द्वीप की गर्मी से भी ज्यादा गरम,
    उमस उठाती भाप,
    उनको अच्छी लगती है शायद,
    अच्छी लगेगी शीत हो चुकी चाय,
    जब नन्ही हँथेली पर,
    जामुन होगा प्रेम का।


    मंगलवार, 4 सितंबर 2012

    कवि और चुनाव

    कोई गोष्ठी नहीं मिलती,
    किसी पैसे वाले की मुट्ठी नहीं खुलती,
    गृहस्थी गाती है गरीबी के गाने,
    बीबी को छोड़िये बच्चे भी देते हैं ताने,
    जब कवि का दर्द हद से ज्यादा बढ़ गया,
    तो कवि भी बेचारा चुनाव लड़ गया,
    निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में जैसे ही भरा पर्चा,
    कवि चुनाव लड़ रहा है,
    हर तरफ इसी बात का होने लगा चर्चा,
    जिसने भी सुना हैरत खा गया,
    कवि कई उम्मीदवारों को भा गया,
    बोले मेरे साथ चल,
    मेरी फिजा में चार चाँद लगाएगा,
    पारिश्रमिक मै दूंगा
    पर कविता विपक्षी के मंच से सुनाएगा,
    कवि बोला श्रीमन मैं स्वयं चुनाव लड़ रहा हूँ,
    जनता को भा जाए
    ऐसी रचना अपने लिये गढ़ रहा हूँ,
    ब्लैक एण्ड व्हाइट कविता ईस्टमैन कलर में ढालूँगा ,
    मंहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार का तड़का डालूँगा ,
    रामदेव जी के मुद्दे की धार,
    उन पर हुआ लाठी का प्रहार,
    और लोकपाली आँसू,
    गज़ब का मुद्दा मिला है धाँसू,
    परिणाम आया तो कवि ने कर दिया कमाल,
    हर प्रत्याशी का था बुरा हाल,
    जमानत भी ना किसी की बच पाई थी,
    जीता था तो बस कवि 
    क्यों कि,
    जनता को सच्चाई की कविता
    कवि ने सुनाई थी।

    पिंजर



    बोरे मे जो हड्डियाँ भरी हुई हैं,
    उनमे से कई को मैने पंहचान लिया,  
    मेरा कपाल दो टुकड़ों में निकला,
    सच और झूठ को परिभाषित करते हुए
    सिक्के के दो पहलुओं को दिखाते हुए,                  
    अंन्धकार और प्रकाश को ले कर,
    बाल रूखे मटमैले कुछ सफेद,
    कुछ काले उलझे चक्रवात जैसे,
    ह्रदय की हड्डी का पिंजर पूरा समूचा,
    प्रेम और वात्सल्य को कैद किये हुए,
    संसार जैसा बोरा ढ़ेर सारी हड्डियों से भरा,
    भुजा अस्थियाँ कुछ सड़ी गली सी हैं,
    दाहिनें हाँथ की तो उँगलियाँ ही है लापता,
    उल्टे हाँथ का सब कुछ सीधा सा था,
    कमर झुकी है या शायद टूटी हुई है,
    दुनिया के दोहरे चरित्र का शिकार,
    नैतिक अनैतिक मर्यादा रिवाज़,
    के सड़े से कुछ पन्ने बाँकी बचे है अभी,
    किन्तु पढ़े नही जा सकते,
    तकदीर की तरह,
    मिट्टी का भुरभुरापन हड्डियो ने सोंख लिया है,
    कलम अस्तित्व बचाने में कामयाब रही,
    जिससे लिखी जा सके हड्डियों की दास्ताँ

    रविवार, 2 सितंबर 2012

    वंश बेल

    चाँद तो खुश है पास अब उसके लौट फ़िजा ना पायेगी,                                
    काण्डा काण्डा करते करते फिर गीता मर जाएगी,
    भंवरी फंसती रोज भंवर में भाँवर ना पड़ पाएगी,
    मधुमिता को अमरमणी की जीत अमर कर जाएगी,
    यश भारत का पंचम स्वर में सारी दुनियाँ गाएगी,
    जिस भारत को माँ कहते हैं लाज वहाँ लुट जाएगी,                                     
    नारी पूजित शक्ति रूपिणी प्रेम सलिल हुलसाएगी,
    फिर भी अबला निर्बल दुर्बल शोषण सब सह जाएगी,
    नारी ही नारी को जब तक मदद नहीं पंहुचाएगी,
    दीन दशा नित दुष्कर स्थिति पल पल बढ़ती जाएगी,
    सच मानो उद्धार जगत का नारी ही कर पाएगी,
    गगन ह्रदय नारी का होता धरा स्वयं हो जाएगी,                                      
    प्रेम मधुरता साहस सब पर सहज सदा बरसाएगी,
    कैसी दुनियाँ कैसे ज्ञानी कौन सीख समझाएगी,
    दुनियाँ होगी कैसे जब नारी ही मिटती जाएगी,
    नारी पोषित नही हुई तो वंश बेल कुम्हलाएगी..................